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Thursday, May 3, 2012

अखबार मालिक की बात तो माननी होती है : विनोद मेहता

अखबार मालिक की बात तो माननी होती है : विनोद मेहता



अखबार मालिक की बात तो माननी होती है : विनोद मेहता

अखबार मालिक की बात तो माननी होती है : विनोद मेहता

By  | May 3, 2012 at 2:47 pm | No comments | मुठभेड़

लखनऊ में पले बढ़े और पढ़े लिखे आउटलुक के एडीटर इन चीफ रहे विनोद मेहता ने पत्रकारिता में जो प्रसिद्धि का शिखर छुआ है उस से किसी को भी रश्क हो सकता है। खास कर नया अखबार या नई पत्रिका निकाल कर उसे स्थापित करने में उन का कोई सानी नहीं रहा है। डेबोनियर, इंडिपेंडेंट, संडे आब्जर्वर, द पायनियर और आउटलुक सरीखे पत्रिकाओं व अखबारों के संपादक रह चुके विनोद मेहता मानते हैं कि तमाम खामियों और गड़बड़ियों के बावजूद अखबारों की जगह कोई और संचार माध्यम नहीं ले सकता। इलेक्ट्रानिक मीडिया तो कतई नहीं। पर पत्रकारिता में दलालों की बढ़ती फौज से भी वह चिंतित दिखते हैं और इनके आगे अपने को असहाय पाते हैं। वह कहते हैं इस का मेरे पास कोई जवाब नहीं है। लखनऊ विश्वविद्यालय से पढ़ाई खत्म कर वह सीधे विलायत घूमने चले गए। ब्रिटिश नागरिकता ले ली। छह-सात बरस बाद देश वापस आए तो अचानक ही डेबोनियर के संपादक बन गए। १९९७ में वह एक सेमिनार में हिस्सा लेने लखनऊ आए थे। राष्ट्रीय सहारा के लिए तभी दयानंद पांडेय ने उन से बहसतलब बातचीत की थी। बातचीत ज़रा क्या पूरी पुरानी भले ही है पर उस की तासीर ऐसी है कि लगता है जैसे आज ही, अभी ही उन से बातचीत हुई हो। तब बातचीत में लखनऊ आ कर वह भावुक हो उठे थे। अपनी जवानी के दिन याद करने लगे थे। पिता सेना में थे। केंटोनमेंट एरिया में एम.बी. क्लब के पास उन का किराए का घर अभी भी है। पर हुसैनगंज के उन के अपने मकान पर केयरटेकर ने ही कब्जा कर लिया है। वह कहते हैं कि कभी इसे भी छुड़ाएंगे। फ़िलहाल तो वह लखनऊ में कूड़ा देख कर बिदकते हैं। लोरेटो कानवेंट स्कूल से आई.टी. कालेज तक की सड़क की याद करते हैं। वह कहते हैं कि इस सड़क का एक-एक मोड़ याद आ जाता है। क्या करूं? अभी तो वह आउटलुक भी छोड़ चुके हैं। संजय गांधी और मीना कुमारी पर उन की किताब पहले ही से चर्चा में रही हैं और अब उन की यादों में भींगी लखनऊ ब्वाय भी छप कर तहलका मचा चुकी है। पेश है उन से तब के समय की गई बातचीत :

आप देश के सब से अच्छे संपादक माने जाते हैं। आप को क्या लगता है?

मैं इस के बारे में क्या कह सकता हूं। यह तो दूसरों के कहने का विषय है।

पर भारतीय पत्रकारिता में जो प्रयोग आपने किए, खोजी पत्रकारिता से ले कर ले आउट तक के डेबोनियर से ले कर आउटलुक तक अलग-अलग रंग पेश किए, हर अखबार, हर पत्रिका को एक नए ढंग और नए कलेवर के साथ पेश किया यह कैसे संभव बन पड़ता है। इस व्यवस्था में भी?

संयोग है मेरा पत्रकारिता में आना और यह भी कि मुझे अच्छे मौके मिलते गए। विलायत से मैं वापस आया था। एक पार्टी में डेबोनियर के मालिक परेशान थे। अपने किसी दोस्त से वह कह रहे थे कि पत्रिका चल नहीं रही। पैसा डूब गया, क्या करें? अब तो मैं इसे बंद करना चाहता हूं। उन की बात सुन कर मैं एक तरफ उन्हें ले गया और उन्हें कहा कि आप मुझे मौका दीजिए। मैं आप की पत्रिका चला कर दिखा दूंगा। उन्हों ने मेरा परिचय पूछा और पूछा कि अनुभव है क्या? मैं ने कहा कि कोई अनुभव तो नहीं है, पर आइडिया है। उन्हों ने कहा कि अपना आइडिया मुझे लिख कर दे दीजिए। दूसरे दिन मैं ने उन्हें अपना आइडिया लिख कर दे दिया। बात उन्हें पसंद आ गई। पर मेरे पास अनुभव नहीं था। फिर भी उन्हों ने यह कहते हुए मुझे मौका दिया कि चलो तुम्हारे साथ एक जुआ खेल लेते हैं। तो इस तरह मैं ने पहली नौकरी ही एडीटर की की। अकबर (एमजे) वगैरह कहते भी हैं कि यार तू तो सीधा एडीटर हुआ।

संडे आब्जर्वर के ले आउट की आज भी चर्चा चलती है। कहा जाता है कि इस के पहले भारतीय पत्रकारिता में ले आउट का इस तरह का कांसेप्ट ही नहीं था।

1981-88 तक संडे आब्जर्वर निकाला। सब से पहले मैं ने संडे अखबार का आइडिया हिंदुस्तान में दिया। किसी भी हिंदुस्तानी अखबार में अभी तक डिज़ाइनर नहीं होता था। मैं ने पहली बार संडे आब्जर्वर में प्रोफ़ेशनल डिज़ाइनर को लेकर अखबार निकाला। टेलीग्राफ़ बाद में आया।

आप पर अच्छा अखबार निकालने का भी सेहरा बंधता है और अखबार बंद कराने की तोहमत भी।

मैं उन संपादकों में से हूं जो प्रेस फ़्रीडम की सिर्फ़ बात ही नहीं करता। मैं ने एक बार नहीं, दो बार नहीं, तीन बार नौकरी दांव पर लगाई है। ऐसा भी नहीं था कि तब मेरे पास नौकरियां थीं। काफी समय बेकार रहना पड़ा है। दरअसल अखबार के जो मालिक हैं उन की बात तो माननी होती है, इस से इंकार नहीं है। पर एक लक्ष्मण रेखा भी होती है। वह पार होती है तो मुश्किल होती है। छोटी-मोटी बात तो मालिकों की मान लेता हूं। अब उन की बीवी की पेंटिंग है या ऐसी और बातें तक तो चल जाती हैं। पर इस राजनीतिज्ञ को छोड़ दो, उस अफसर को छोड़ दो बार-बार कहा जाने लगता है तो मैं नौकरी छोड़ देता हूं।

शायद इस लिए आप को नए अखबार ही रास आते हैं क्यों कि नए अखबार में दखलंदाज़ी ज़्यादा नहीं हो पाती।

बिलकुल ठीक। यही बात है। मालिकों को शुरू में अखबार चलाना ही चलाना है। मैं उन्हें समझा देता हूं जैसे आप सीमेंट या ऐसी किसी और फैक्ट्री के बारे में जानते हैं पर उस के बारे में मैं नहीं जानता हूं। मैं जैसे चाहता हूं, वैसे ही निकालने दीजिए। अखबार न चले तो ज़रूर रोकिएगा। पर बेवज़ह टोका-टाकी नहीं। शुरू-शुरू में तो अखबार मालिक बतौर पालिसी मान जाते हैं, पर जब यह बात टूटती है तो नौकरी छोड़ देता हूं। अब जैसे इंडिपेंडेंट में राजपति सिंहानिया ने शुरू में पूरी आज़ादी दी। अच्छा अखबार निकला। पर बाद में टोका-टाकी शुरू की कि इन के खिलाफ मत छापो, उन के खिलाफ मत छापो। तो मैं ने उन से कहा कि आप एक ऐसी सूची दे दीजिए कि किन-किन के खिलाफ नहीं छपना है। तो उन्होंने आठ-दस नाम दिए कि इन को क्रिटिसाइज़ मत करें। इस में पहला नाम राजीव गांधी का था, दूसरा नाम अमिताभ बच्चन का तो मैं ने कहा कि यह कैसे हो सकता है कि प्रधानमंत्री की ही खबर न छपे। तो छोड़ दिया। इसी तरह पायनियर में शुरू में तो रिश्ते अच्छे थे, थापर के साथ। बाद में खराब हुए। वह दिल्ली में बहुत पहले से हैं। उन के जानने वाले वहां ज़्यादा थे। खास कर ब्यूरोक्रेसी में पर मैं ने उन को समझाया कि एक नए अखबार को स्टैब्लिश करने के लिए एंटी स्टैब्लिशमेंट खबरें छापनी पड़ेंगी। तो शुरू में तो वह मान गए। दिल्ली में 14 अखबार पहले से थे। उन सबको काट कर पहचान बनाना और उसे चलाना आसान नहीं था। पर जब अखबार की पहचान बन गई, अखबार चल गया तो उन की टोका टाकी शुरू हो गई। दूसरे मेरे आने के पहले लखनऊ में यह अखबार प्रो.बीजेपी हो गया था। प्रेस कौंसिल ने इस बाबत मुझे चिट्ठी भी दी। थापर का ख्याल भी भाजपाई था पर मैं ने भाजपा के खिलाफ छापना शुरू किया। उन के हिंदी अखबार से एक भाजपाई संपादक को हटाया तो राजनीतिक असहमति शुरू हुई। मैं तो एस.पी. सिंह को हिंदी अखबार में संपादक बनाना चाहता था वह बात मेरी नहीं मानी गई। फिर लखनऊ पायनियर के रेजीडेंट एडीटर को हटा कर वह दूसरे को लाए। मेरी मर्जी के खिलाफ। वहां एक ज़िद्दी मैनेजर था सजीव कंवर उस ने भी काफी गड़बड़ किया। तो छोड़ दिया पायनियर। फिर छह महीने बेकार रहा। पायनियर के बाद लोग कहने लगे कि तुम बहुत लड़ाकू हो, कोई नौकरी नहीं देगा। पर आउटलुक में मिल गई।

और अब आउटलुक में?

यहां ठीक है। आउटलुक निकाला तो इंडिया टुडे चैलेंज था। पर उन को चुनौती दी और सफल रहे। दरअसल मैं उन संपादकों में से हूं जो नया अखबार या नई पत्रिका शुरू कर सकता है। मैं ऐसे कुछ लोगों में से हूं। तो नया करने से पहले लोग मेरे पास आते हैं। पर मैं ऐसा भी नहीं कहता कि मैं संपादक हूं तो मेरा ही कहा सब ठीक है। पर मेरा कहना है कि जब मैं ने आपका पेपर चला दिया तो आप मुझे सपोर्ट करें, क्यों कि मैं गलत बात नहीं कर रहा।

आप को नहीं लगता कि आज-कल लाइज़नर्स की बन आई है।

बिलकुल। उन को संपादक नहीं, लायज़नमैन चाहिए। उन्हें यस मैन चाहिए। अच्छा प्रोडक्ट नहीं, अच्छा अखबार नहीं।

तो आप अखबार को प्रोडक्ट मानते हैं?

नहीं। मैं प्रोडक्ट ऐसे ही नहीं कह रहा। अखबार प्रोडक्ट नहीं है। यह गलत बात है वह तो बातचीत में कह गया। पर आप सब से अच्छा अखबार निकालें और जेब भी कटती जाए यह ठीक नहीं। अखबार कामर्शियल भी हो और क्वालिटी भी हो, मार्केट की लहर भी हो।

इलेक्ट्रानिक मीडिया से प्रिंट मीडिया को खतरे पर?

इलेक्ट्रानिक मीडिया में पैसा लगाने आए लोग पिट गए। जी को छोड़ कर। यह बहुत कठिन मीडिया है। पर मुझे इलेक्ट्रानिक मीडिया का कोई शौक नहीं। अगर आप को डीपली जाना हो किसी सब्जेक्ट में तो टीवी के मार्फत नहीं जा सकते। सीरियस जर्नलिस्ट के लिए टीवी नहीं है। चार-पांच साल पहले प्रिंट मीडिया पर मार पड़ी थी। पर अब नहीं आउटलुक आया तो टीवी हावी था। पर हम ने तो मार्केट बनाई। दरअसल प्रिंट मीडिया का रीवाइवल हो रहा है। सीरियस रीडर को टी.वी. से कुछ नहीं मिलता।

पर टीवी ने पत्रिकाओं के विज्ञापन छीन लिए, फिक्शन रीडर छीन लिए?

इस लिए कि प्रिंट मीडिया डिफेंसिव रहा। फाइट नहीं किया। पर आउटलुक ने यह झुठला दिया। दरअसल मैगज़ीन हफ़्ते भर का ऐसा कैप्सूल है जो टी.वी. में कभी नहीं मिलेगा। इनवेस्टिगेटिव तो कतई नहीं। प्रिंट मीडिया के हौसले बुलंद हैं। देखिएगा, तीन-चार साल नए-नए पब्लिकेशन आएंगे।

आउटलुक क्या हिंदी में भी आ रहा है?

साल डेढ़-साल बाद ज़रूर।

आप को नहीं लगता कि आप हिंदी में नहीं हो कर जनमानस को मिस करते हैं? हिंदी में विशाल पाठक वर्ग को मिस करते हैं? हिंदी जो देश की धड़कन है।

हिंदी में न होने से पेपर को मास बेस नहीं मिल पाता यह सही है। हिंदी हम मिस करते हैं पर कोई सोलूशन नहीं। पर हम हिंदी में पहले आ रहे हैं। गुजराती, तमिल आदि बाद में। हमें मालूम है कि हमारी स्टोरीज़ हिंदी अखबारों में अनुवाद हो कर छपती है। लोग शिकायत करते हैं। पर हम टाल जाते हैं। चुप रहते हैं। क्यों कि सच यह है कि हमें अच्छा लगता है कि हमारी बात हिंदी में भी छपी है।

अखबारों में जो दलालों भड़ुओं की फौज आ गई है?

दलालों, भड़ुओं की फौज को दरअसल प्रोपाइटर्स ने इनकरेज किया है।

पर इन दलालों भड़ुओं से पत्रकारिता को छुट्टी कैसे दिलाई जा सकती है?

इस बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं है। कोई जवाब नहीं, सोलूशन भी नहीं। पर यह ज़रूर जानता हूं कि जब सब दलाल हो जाएंगे तो प्रिंट मीडिया का सत्यानाश हो जाएगा। हिंदी का तो आप जाने पर अंगरेजी में पिछले पांच सालों में इतना स्टीप फाल हुआ है कि क्या कहें। इसी लिए प्रोप्राइटर्स फारेन मीडिया से डरते हैं कि इन की मोनोपोली टूट जाएगी। दूसरे पत्रकारों की जो खराब स्थितियां है वह ठीक हो जाएंगी। उन्हें अच्छी तनख्वाह जब वह देंगे तो इन्हें भी देना पड़ेगा। सम्मान देना पड़ेगा। पुराने ज़माने के लोग मिलते हैं तो वह बताते हैं कि कैसा सम्मान था उन का। टाइम्स आफ इंडिया के पुराने संपादक शाम लाल बताते थे कि डालमिया जो मालिक थे उन से मिलने के लिए फ़ोन कर के बड़े अदब से टाइम मांगते थे। पर अब?

पत्रकारों में मैसेंजर ब्वायज की बढ़ती संख्या पर?

मैसेंजर ब्वायज इज वेरी बैड जर्नलिस्ट। पर जब फ़ारेन प्रेस आ जाएगा, कंपटीशन बढ़ेगा तो भारतीय अखबारों को भी प्रोफ़ेशनल बनना पड़ेगा। तब शायद मैसेंजर ब्वायज, दलालों और भड़ुओं से कुछ छुट्टी मिले।

ब्रिटिश नागरिकता आप के पास अब भी है?

नहीं भारत वापस आने के 5-7 वर्ष बाद छोड़ दी।

ब्रिटिश नागरिकता की ज़रूरत ही क्या थी?

वहां घूमने में बड़ी दिक्कत होती थी। बार-बार सौ-डेढ़ सौ किलोमीटर पर वीजा बनवाना पड़ता था। फिर आसानी से ब्रिटिश नागरिकता ले ली।

लखनऊ आ कर रहने का मन नहीं होता?

होता तो है, पर प्रोफेशन के नाते आ नहीं सकता। मेरे पिता कैप्टन थे। अब वह रिटायर हो गए हैं। वह शायद आ कर रहें। एम.बी. क्लब के पास मेरा किराए का घर अब भी है। चौकीदार रहता है। एक सेंटीमेंटल लगाव है इस घर से। मां कहती है रहने दो इसे। पर मेरे ग्रैंड फ़ादर ने पाकिस्तान से आ कर हुसेनगंज में एक मकान लिया था पांच फ्लैट हैं। एक केयरटेकर रखा था। उसी ने कब्ज़ा कर लिया है। समय नहीं मिलता कि उस से झगड़ा करें। पर अब उसे छुड़ाऊंगा।

आप ने अभी कहा था कि लखनऊ आ कर खुशी भी होती है और रंज भी?

खुशी इस लिए कि इतने साल रहा। तो यहां की सड़कें याद आती हैं। लैंडमार्क याद आते हैं। लोरेटो कानवेंट, हज़रतगंज की सड़क का एक-एक मोड़ याद आता है। क्वालिटी रेस्टोरेंट की याद आती है। कार्टन होटल के सामने खड़ा हो जाता हूं। लखनऊ की सड़कों पर बीयर पीना याद आता है।

और इश्क-वुश्क?

हां, वह भी। आई.टी. था। लोरेटो था। उन दिनों लखनऊ काफी रंगीन शहर था, उम्दा शहर था, कल्चर था।

और अब?

प्रोग्रेस तो होता है हर शहर का। दुकानें, होटल खुलते हैं। पर जिस एक शहर को जिस की कुछ हिस्ट्री है तो नया पुराने को खत्म कर दें यह ठीक नहीं। दूसरे देखता हूं। यहां कूड़ा बहुत हो गया है। हज़रतगंज जैसी जगह में भी कूड़े का ढेर। यहां की म्युनिसपलिटी क्या करती है? तो रंज भी होता है कि शहर को थोड़ा-बहुत तो साफ रखो भई!

आप से इश्क के बारे में भी पूछा था?

अब इश्क कहां है कि कुछ कहूं। इश्क के लिए वक्त चाहिए। वक्त भी मेरे पास नहीं है।

बच्चे कितने हैं?

बच्चे नहीं है। शादी की थी बंबई में रेखा से पर तलाक हो गया। छह-सात साल पहले।

पत्नी अब क्या कर रही है? क्या दूसरी शादी कर ली?

नहीं। न ही रेखा ने दूसरी शादी की न मैं ने। पत्नी रेखा दिल्ली की एक बड़ी पी.आर.ओ. कंपनी में काम करती है।

उन से अब भी भेंट होती है?

हम बहुत अच्छे दोस्त हैं। अभी दस दिन पहले ही गया था। बल्कि डाइवोर्स के बाद हमारी दोस्ती बढ़ी है।

वह भी पंजाबी हैं?

हां।

जब आप पायनियर में आए थे तो मुझे याद है कि आप ने एक लेख लिख कर कहा था कि आप अखबार के पहले पेज से राजनीतिक खबरों को हटा कर भीतर के पन्नों पर कर देंगे और मानवीय खबरों, ऐतिहासिक इमारतों से जुड़ी खबरें, संस्कृति से जुड़ी खबरों को पहले पेज पर प्रमुखता से छापेंगे। पर ऐसा किया नहीं आप ने?

1991 की पायनियर की फाइलें देखें। 25 दिन तक सेव लखनऊ शीर्षक से हमने एक कंपेन चलाया पहले पेज पर। पर उसमें प्राब्लम यह थी कि मैं दिल्ली में रहता था, लखनऊ उतना देख नहीं पाता था।

पर दिल्ली में भी आप ने ऐसा कुछ नहीं किया?

हां, शायद आप ठीक कह रहे हैं कि में उतना कर नहीं पाया। दरअसल राजनीति के चक्कर में हम फेल हो जाते हैं। लालू जैसे लोग सोशल स्टोरी खा जाते हैं। पर सच यह है कि पब्लिक से हमें जो फीड बैक मिलता है वह यह है कि पालिटिक्स थोड़ा कम कीजिए। पाठकों के खत कहते हैं कि स्कूल, स्वास्थ्य आदि पर खबरें चाहिए। पर क्या करें?

आप को लगता है कि हिंदुस्तान में सचमुच में प्रेस का अस्तित्व है?

है। बिल्कुल है। आप यहां परेशान हैं। पर कभी पाकिस्तान वालों से जा कर पूछिए। बाहर के लोग मानते हैं कि इंडियन पेपर हैव गट्स। अब आखिर गुजराल की इतनी पिटाई प्रेस में हो रही है तो कैसे? बाहर के लोग भी मानते हैं और मैं भी कि इट इज नाट ए डरपोक प्रेस!

साभार सरोकारनामा

दयानंद पांडेय

दयानंद पांडेय ,लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. अपनी कहानियों और उपन्यासों के मार्फ़त लगातार चर्चा में रहने वाले दयानंद पांडेय का जन्म 30 जनवरी, 1958 को गोरखपुर ज़िले के एक गांव बैदौली में हुआ। हिंदी में एम.ए. करने के पहले ही से वह पत्रकारिता में आ गए। 33 साल हो गए हैं पत्रकारिता करते हुए। उन के उपन्यास और कहानियों आदि की कोई डेढ़ दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। लोक कवि अब गाते नही पर प्रेमचंद सम्मान तथा कहानी संग्रह 'एक जीनियस की विवादास्पद मौत' पर यशपाल सम्मान। बांसगांव की मुनमुन, वे जो हारे हुए, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाज़े, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास), प्रतिनिधि कहानियां, बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण), सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित) तथा सुनील गावस्कर की प्रसिद्ध किताब 'माई आइडल्स' का हिंदी अनुवाद 'मेरे प्रिय खिलाड़ी' नाम से प्रकाशित। उनका ब्लाग है- सरोकारनामा

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