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Friday, May 4, 2012

रेप के खिलाफ सामूहिक गुस्‍सा जाहिर करना अब जरूरी है!

http://mohallalive.com/2012/05/04/stop-rape-now/

 आमुखमोहल्ला दिल्लीसंघर्ष

रेप के खिलाफ सामूहिक गुस्‍सा जाहिर करना अब जरूरी है!

4 MAY 2012 ONE COMMENT

♦ कपिल शर्मा

म साम्राज्‍यवाद, आतंकवाद, सांप्रदायिकता, सामाजिक न्‍याय जैसे मुद्दों को लेकर जितने सजग और आक्रामक रहते हैं, उतने रैगिंग, दहेज या बलात्‍कार जैसे मामलों को लेकर नहीं हो पाते। हमें लगता है कि साम्राज्‍यवाद को हराना, सांप्रदायिकता को खत्‍म करना और सामाजिक न्‍याय का लक्ष्‍य प्राप्‍त कर लेना फिलहाल ज्‍यादा जरूरी है। बेशक जरूरी है, लेकिन इन जरूरी मुद्दों के सामने मामूली से लगने वाले कुछ दूसरे मुद्दे भी इतनी ही शिद्दत से संघर्ष, प्रतिरोध और प्रतिबद्धता की मांग करते हैं। पिछले दिनों जिस तरह से दिल्‍ली और एनसीआर में बलात्‍कार के ताबड़तोड़ मामले सामने आ रहे हैं, वह अगर सड़क पर उतर कर व्‍यवस्‍था के खिलाफ अपना गुस्‍सा जाहिर करने की प्रेरणा नहीं देता है, तो समझ लेना चाहिए हमारा खून पानी हो चुका है। हमारी गुजारिश है कि इस जरूरी लड़ाई को हम सब मिल कर छेड़ें और सिटिजन्‍स कलेक्टिव अगेंस्‍ट सेक्‍सुअल असॉल्‍ट के नेतृत्‍व में कल यानी 5 मई 2012 को सुबह 11 बजे आईटीओ से मंडी हाउस तक निकलने वाली रैली में हिस्‍सा लें। रैली का परचा इमेज के साथ हम अटैच कर रहे हैं, जिस पर चटका लगाने से वो बड़े फॉर्मेट में आपके सामने आ जाएगा। युवा पत्रकार कपिल शर्मा ने इस मुद्दे पर विस्‍तार से लिखने की जो कार्रवाई की है, उससे इस संघर्ष को एक ताकत मिली है : मॉडरेटर


पिछले कुछ दिनों में हुई बलात्कार की घटनाओं को देखकर एक सवाल दिमाग में आया कि क्यों न हम अपने परिवार की मां, बेटी, बहन, पत्नी के साथ गैंग रेप होने की कल्पना करें। बात अटपटी और घृणित लग सकती है, लेकिन मौजूदा माहौल को देखते हुए एक बार को सोचिए कि पुलिस का फोन आपके पास आया है और आपसे घटनास्थल पर पहुंचने के लिए कहा गया है। पुलिस बलात्कारियों के तौर पर अनजान लोगों को बता रही है, जो अभी भी पुलिस की गिरफ्त से बाहर है।

इसके बाद अपने आपको ढीला छोड़ कर इस घटना के बाद हमारी-आपकी पारिवारिक जिंदगी में आने वाले बदलाव के बारे में सोचिए। निश्चित तौर पर कल्पना के घोड़े ऐसे हालातों के दर्शन करा देंगे, जहां हमारे हाथ-पांव ढीले पड़ जाएंगे। माथे से पसीना छूटने लगेगा, हिम्मत जवाब देने लगेगी और आखिर में भरपूर बेबसी के साथ एक सवाल हमारे सामने आएगा कि अगर सच में ऐसा हुआ, तो मैं क्या कर लूंगा।

इस सवाल का जवाब होगा – कुछ नहीं। क्योंकि पुलिस और प्रशासन तो महज सांत्वना की घुट्टी ही दे सकते हैं। मीडियाबाजी होने पर ज्यादा से ज्यादा अपराधी को पकड़ कर सामने ला सकते हैं।

कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगा कर अपराधी को दो चार साल की सजा दिलायी जा सकती है। लेकिन क्या इन सबसे पीड़िता की चोट भर जाएगी। क्या भविष्‍य में वह बिना डरे इस समाज में सांस ले पाएगी। शायद नहीं, क्योंकि इस चोट का दर्द उसे उम्र भर झेलना होगा। देखा जाए तो किसी भी सभ्य समाज में बलात्कार पीड़िता की इज्जत के बदले अपराधी को दो-चार साल की सजा सुनाकर हिसाब चुकता नहीं माना जा सकता है।

तैश दिखाने वाले कह सकते हैं कि अगर ऐसा हुआ, तो मैं खून-खराबा कर दूंगा, आग लगा दूंगा। लेकिन इससे भी कोई खास सुकून नहीं मिलने वाला, बल्कि आगे की जिंदगी जेल में गुजरेगी। जिदंगी बरबाद हो जाएगी और एक घटना जीने का ढंग ही बदल देगी।

हर पल ऐसा लगेगा कि हमने ऐसी कौन सी गलती की थी कि जुल्म के शिकार भी हम ही हुए और सजा भी हमको ही मिली। पूरा समाज एक जंगल लगने लगेगा लेकिन इससे बाहर जाने का कोई रास्ता भी नहीं सूझेगा। हताशा के साथ समय कटने लगेगा, कुछ दिनों बाद फिर से किसी का बलात्कार होगा और पूरी की पूरी यही कहानी दोहरायी जाएगी।

खैर, मेरी इस बात को कई लोग ये तर्क देकर काट सकते हैं कि हम क्या सीजोफ्रेनिक हैं, जो फालतू की कल्पनाएं कर परेशान होते रहें। लेकिन सच तो यही है कि 1973 में तत्कालीन बंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल हॉस्पिटल की नर्स अरुणा शॉनबाग को भी नहीं मालूम था कि एक दिन इसी अस्पताल में उनका रेप होगा और जिदंगी के बाकी साल यहीं किसी बेड पर कोमा में गुजरेंगे। ये वहीं अरुणा शॉनबाग हैं, जिनके लिए साल 2011 में मर्सी डाई की याचिका सुप्रीम कोर्ट में लगायी गयी थी। यही नहीं, साल 2009 में नोएडा में एमबीए छात्रा का गैंग रेप केस, नयी दिल्ली के साल 2010 में हुए धौलाकुआं रेप केस, फरीदाबाद में मार्च 2011 में हुए गैंग रेप, महीना-दो महीना पहले ही हुए गुड़गांव के सहारा मॉल गैंगरेप केस, गाजियाबाद गैंगरेप केस और न जाने कितने ही ऐसी अन्य महिलाओं को भी ये नहीं मालूम था कि एक दिन उनके साथ भी गैंग रेप होगा।

इससे एक बात तो साफ है कि शुतुरमुर्ग की तरह गर्दन नीचे झुका लेने से यह नहीं तय हो जाता कि अगला नंबर आपका नहीं है। राष्ट्रीय क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के 2010 में जारी किये गये अंतिम आंकड़ों को खंगालें, तो पता चलेगा कि साल 2010 में भारत में 22,172 केस बलात्कार के दर्ज हुए थे। जिनमें से 94.5 फीसदी मामलों में पुलिस ने चार्जशीट दायर की थी और मात्र 26.6 फीसदी मामलों में अंतिम तौर पर अपराधियों को सजा हुई।

इन 22,172 मामलों में 1,975 मामले 14 साल से कम उम्र की लड़कियों के बलात्कार से संबधित थे। जबकि 3,570 मामले 14 से 18 साल और 12,749 मामले 18 से 30 साल की महिलाओं से संबधित थे। इनमें अधेड़ उम्र की महिलाओं के 3,763 मामले और 50 साल से ज्यादा उम्र की महिलाओं के बलात्कार के 136 मामले भी शामिल हैं।

बलात्कार के इन मामलों में साल 2010 में होने वाले यौन उत्पीड़न के 11,009 मामलों को शामिल नहीं किया गया है। साथ ही इनमें बलात्कार के वे मामले भी शामिल नहीं हैं, जिन्हें समाज में बदनामी या झंझटों के डर से छुपा लिया जाता है। जिनके निश्चित तौर पर रजिस्टर्ड मामलों से जो ज्यादा होने के कयास लगाये जा सकते हैं। वैसे अकेले दिल्ली में ही 2010 में 3,886 मामले बलात्कार के दर्ज हुए थे।

गौर करने लायक बात यह है कि 1971 में बलात्कार के मात्र 2487 मामले ही दर्ज हुए थे जबकि 2007 से 2010 के बीच इनका आंकड़ा 20,000 से 24,000 के आसपास रहा है।

इन आंकड़ों से साफ पता चलता है कि पिछले चालीस सालों में तेजी से आधुनिक होते भारतीय समाज में बलात्कार महिलाओं के लिए बुरे सपने बनकर उभरे हैं। लेकिन असली सवाल यहीं से शुरू होते हैं कि क्या बलात्कार की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए भारतीय महिलाएं अभी भी अपने आपको सुरक्षित मानने का भ्रम पाले हुई हैं।

क्या उन्हें बदलती जरूरतों के हिसाब से बलात्कार रोधी कानूनों की आवश्यकता महसूस नहीं होती है। क्या आईपीसी की धारा 376 में इतना माद्दा है कि भविष्‍य में किसी अन्य महिला का रेप करने वालों के मन में जेल का भय पैदा कर सके। क्या कार्पोरेट नौकरियों ने भारतीय महिलाओं को इतना व्यस्त कर दिया है कि अब बलात्कार जैसी घटनाएं उनके लिए कोई मायने नहीं रखतीं और इन्हें वे आम घटनाएं ही मानती हैं। क्या भारतीय महिला संगठन समाज में अपनी साख खो चुके हैं और महिलाओं की ओर से लड़ने के लिए उनके पास कोई मुद्दा नहीं है।

कइयों को तो ये भी लगता होगा कि मात्र पंद्रह-बीस दिन की फिजिकल ट्रेंनिग महिलाओं को पुरुषों से हाथापाई में जीतने और बलात्कार से बचने का शक्तिवर्धक नुस्खा दे देगी। असलियत में ये सभी बातें गफलत में ही हैं।

शहरी महिलाओं के पढ़े-लिखे वर्ग को अगर छोड़ दिया जाए, तो देश की महिलाओं का एक बहुत बड़ा वर्ग, जिनमें ग्रामीण महिलाएं भी शामिल हैं, आज भी बलात्कार होने पर एफआईआर भी दर्ज नहीं करा पाती हैं।

ऐसे में सवाल उठता है कि महिलाओं की इस लड़ाई को कैसे लड़ा जाए। कैसे बलात्कारों की घटनाओं पर रोक लगायी जाए। चाहे जो भी हो, महिलाओं को अब ये बात समझ लेनी चाहिए कि इस कलयुग में कोई कृष्‍ण उनकी इज्जत बचाने आने वाला नहीं है। अब उन्हें अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी है।

फिर चाहे महिलाओं को संगठन बना कर धरना-प्रदर्शन करना पड़े, सभाएं, विरोध प्रदर्शन, जागरूकता अभियान छेड़ने पड़े या सोशलमीडिया जैसे मंचों में अपने मामलों को रखना पड़े … ये करना पड़ेगा। यहीं नहीं, महिलाओं को सरकार और प्रशासन से अपने वोटों की कीमत वसूलनी होगी और सरकार को ये एहसास दिलाना होगा कि बलात्कार के मामलों को हल्के तरीके से लेकर नजरअंदाज न किया जाए। बल्कि कुछ ठोस कदम उठाकर एक संगठित रणनीति बलात्कारों को रोकने के लिए देश में लायी जाए। हो सके तो बलात्कार रोकने के लिए पहले से अधिक कठोर कानून लाये जाएं, जो रेप करने वाले अपराधियों के मन में भय पैदा कर सके। ऐसा करके रेप की घटनाओं में कमी लायी जा सकती है।

सबसे जरूरी बात कि महिलाओं के इस संघर्ष में पुरुष समाज को शामिल करना होगा। क्योंकि वास्तविकता में बलात्कार किसी तरह का यौन उत्पीड़न न होकर एक दिमागी हिंसा है, जिसमें महिलाओं को अपने से कमतर, घृणित और उपभोग करने लायक समझा जाता है और माना जाता है कि वे रौंदने के लिए ही बनायी गयी हैं।

शायद गरीबी, बेरोजगारी और दिमागी अशिक्षा से जूझ रहे भारतीय समाज में बलात्कारों को रोकने के लिए तात्कालिक तौर पर अभी यही ऐसा विकल्प है, जिसमें महिलाओं को अपने सुरक्षित भविष्‍य की नींव रखनी पड़ेगी। क्योंकि पूरी तरह से पुरुषों के समान अधिकार पाने के लिए महिलाओं को एक बहुत लंबी लड़ाई लड़नी होगी।

इसके अलावा हम सभी सभ्य समाज के बांशिदों को एक ऐसे भारतीय समाज की रचना भी करनी होगी, जहां का नागरिक दिमागी तौर पर इतना साक्षर हो जाए कि जीयो और जीने दो के लोकतांत्रिक मंत्र को स्वतः ही समझ जाए। फिर बलात्कारों को रोकने के लिए न ही कठोर कानूनों की आवश्यकता होगी और न ही किसी जागरूकता अभियान की।

(कपिल शर्मा। पेशे से पत्रकार। इंडियन इंस्‍टीच्‍यूट ऑफ मास कम्‍युनिकेशन से डिप्‍लोमा। उनसे kapilsharmaiimcdelhi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)


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