यूँही चुपचाप चले गये नवीन नौटियाल
लेखक : नैनीताल समाचार :: :: वर्ष :: :February 28, 2012 पर प्रकाशित
सुरेन्द्र
जब हर कोई चुनाव परिणाम के कयासों में मुब्तिला था, तभी 2 फरवरी की शाम देहरादून से रानू बिष्ट का फोन आया कि भाई नवीन नौटियाल नहीं रहे। राजनैतिक कोलाहल के मध्य नवीन नौटियाल का निधन भी दब कर रह गया।
उत्तराखंड का कोई जनांदोलन हो या सामाजिक सरोकारों और मुददों की कोई लड़ाई, एक पत्रकार के रूप में भाई नवीन नौटियाल हमेशा उसमें अग्रणी रहे। मसूरी की चूना खानों को लेकर कलम के बल पर की गई उनकी लड़ाई को लोग अभी भी याद करते हैं। स्वार्थ और व्यावसायिकता के दलदल में फँस चुकी पत्रकारिता के इस युग में वे कुँवर प्रसून जैसे पत्रकारों के साथ थे, जिन्होंने वनांदोलन, खनन माफियाओं तथा सामाजिक बुराइयों पर लिखने की मुहिम चलाई और ऐसे आंदोलनों की ये आत्मा रहे। जिन दिनों चिपको आंदोलन को घनश्याम सैलानी अपने गीतों से ऊर्जा दे रहे थे, नवीन नौटियाल अपनी कलम से उसे विस्तार दे रहे थे। नौटियाल ने जहाँ जौनसार बाबर एवं रवांई क्षेत्र की बँधुआ मजदूरों एवं कोल्टाओं की जिंदगी की समस्याओं पर अपनी लेखनी चलाई तो वहीं देहरादून के सांस्कृतिक वैभव, बासमती, लीची और गुरु रामराय आदि पर भी लिखा। हिन्दुस्तान की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख और समाचार छपते रहे। लंबे समय तक वे नवभारत टाइम्स समेत कई पत्रों के संवाददाता रहे। देहरादून के कई पत्रों ने तो उनके साथ धोखा किया। काम करवाया और मेहताना नहीं दिया। उनके लिखे का फायदा अनेक लोगों ने उठाया, परंतु वे पत्रकारिता के नाम पर चलने वाली दलाली के नजदीक खुद कभी नहीं रहे। जिन्होंने उनका भरपूर फायदा उठाया, आज वे दिखाई तक नहीं दे रहे हैं।
नवीन नौटियाल का जन्म श्रीनगर में सन 1949 में हुआ था। पिता शिवानंद नौटियाल साहित्यिक मिजाज के व्यक्ति थे और एक बेहतरीन फोटोग्राफर। 'इंडियन आर्ट स्टूडियो' के रूप में उन्होंने मसूरी तथा देहरादून में कार्य किया। शिवानंद जी ने मसूरी में रहकर सन 1952 में मौण मेले पर एक फिल्म भी बनाई थी, जो बाद में बीबीसी में भी चली।
आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण संघर्ष की जिंदगी जीता यह पत्रकार देहरादून की सड़कों पर धूप, बरसात व सर्दी में पैदल धूल फाँकता दिखाई देता था। आखिर दो फरवरी को एक लंबी बीमारी के पश्चात अपनी माँ, पत्नी और बिटिया साक्षी को छोड़ कर वे चल दिये। पिछले दो सालों से वे बीमार थे। देहरादून से निकलने वाली एक मासिक पत्रिका इंडिया टाइम्स के दफ्तर में वे बेहोश क्या हुए कि फिर पूरी तरह स्वस्थ हो ही न सके। तब से वे बिस्तर से न उठे। आर्थिक तंगी में दवाइयों के अभाव के कारण उनकी बीमारी कष्टपूर्ण रही। एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने वाली उनकी पत्नी के सहारे ही गृहस्थी जैसे-तैसे घिसटती रही।
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