कस होलो उत्तराखंड यानी गिर्दा की याद
लेखक : हरीश चन्द्र चंदोला :: :: वर्ष :: :March 8, 2012 पर प्रकाशित
http://www.nainitalsamachar.in/girda-ke-bad-girda-ki-yad-program-in-delhi-4-feb-12/
कस होलो उत्तराखंड यानी गिर्दा की याद
लेखक : हरीश चन्द्र चंदोला :: :: वर्ष :: :March 8, 2012 पर प्रकाशित
दिल्ली के तीनमूर्ति भवन सभागार में 'पहाड़' की दिल्ली टीम द्वारा 4 फरवरी को 'गिरदा के बाद, गिरदा की याद' कार्यक्रम आयोजित किया गया। इसमें शेखर पाठक ने गिरदा के जीवन, व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक लम्बा व्याख्यान दिया और पंकज बिष्ट, आनन्द स्वरूप वर्मा, राजीव लोचन साह, देवेन मेवाड़ी, सुरेश नौटियाल और भूपेन सिंह आदि ने अपने-अपने ढंग से गिरदा को याद किया। नरेन्द्र नेगी, हीरा सिंह राणा और चन्द्रसिंह राणा आदि कवि-गायकों ने गिरदा को अपनी काव्यात्मक श्रद्धांजलि दी। कमल कर्नाटक और ममता कर्नाटक ने गिरदा के गीतों पर आधारित एक प्रभावशाली नाट्य प्रस्तुति दी और सीमा उनियाल ने गिरदा की कविता को अपने ढंग से सुर में बाँध कर प्रस्तुत किया। 'पहाड़' दिल्ली के चन्दन डांगी ने सबका धन्यवाद ज्ञापन किया। कार्यक्रम में स्वल्पाहार के रूप में भी गहत का सूप, आलू के गुटके और बाल मिठाई परोसे गये। गिरदा की पत्नी हेमलता तिवारी, पुत्र प्रेम और तुहिनांशु सहित तीन सौ के करीब लोगों ने इस कार्यक्रम में भाग लिया।
पाँच घंटे से अधिक चले इस कार्यक्रम में, मैं बोलने से रह गया। हालाँकि मुझे नया कुछ कहने को नहीं था। मैं केवल यह याद दिलाना चाहता था कि उत्तराखंड राज्य आंदोलन गिरदा के गीतों पर बढ़ा था। उस लड़ाई के समय ऐसा कोई सम्मेलन नहीं हुआ, न ऐसा जलूस निकला, जिसमें गिरदा के गीत न गाये गए हों। अभी-अभी उत्तराखंड के तीसरे चुनाव के लिये वोट पडे़ हैं। मैं कहना चाहता था कि नए राज्य की जो कल्पना गिरदा के गीतों में थी, साकार नहीं हो पाई। उनका गीत था: 'कस होलो उत्तराखंड'। जो कुछ भी उसमें कहा गया, उसमें से कुछ भी अभी तक नहीं बन पाया। इस चुनाव में बहुत सारे दल लड़े। किसी ने भी राजधानी को मुख्य मुद्दा नहीं बनाया। जबकि सभी जानते हैं कि राजधानी पहाड़ में न बनने पर यह राज्य आगे नहीं बढ़ पाएगा। इसीलिए मैं कहना चाहता था कि गिरदा ने पहाड़ी लोगों के लिये जो सपना देखा था, वह अभी तक साकार नहीं हुआ, ऐसा क्यों हुआ ?
जल, जंगल और जमीन की लड़ाई पहाड़ में शुरू हुई, देश भर में फैली और और लड़ी जा रही है। लेकिन पहाड उससे जुड़ा नहीं रह पाया। पहाड़ों में यह लडाई छिटपुट रूप से कई जगहों पर चल रही है, लेकिन कुल मिलाकर एक बडी लड़ाई नहीं बन पाती। टिहरी बाँध की लड़ाई राष्ट्रीय स्तर पर आ गई थी, लेकिन वह नर्मदा बाँध की लड़ाई या अन्य जगहों जल की लड़ाई से नहीं जुड़ी रह पायी। टिहरी तथा नर्मदा अलग-अलग लड़ाइयाँ रहीं। टिहरी लगभग समाप्त हो गई है। सरकार नये विभाग, नये कार्यालय बना रही है, मगर नये उपार्जन के काम नहीं हो रहे हैं। न पहाड़ में मौजूदा खेती को उन्नत बनाने के लिये सरकारी धन का उपयोग किया जा रहा है। परन्तु कुछ सतही नीतियाँ बनती हैं। हाल में किसानों से कहा गया केंचुए की खाद बनाओ और उसे खेतों में डालो। उसके प्रचार के लिए कार्यकर्ता नियुक्त किए गए।
राज्य में पत्थर निकालने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। पहाड़ों पर मकान पत्थर तथा मिट्टी के ही बनते थे। अब जिसके पास धन है, वह मैदानों से ईंट ला घर बना रहा है। जहाँ गाड़ी की सडक है, वहाँ एक ईंट लगभग दस रुपए की पडती है। जहाँ उसे जानवरों या लोगों की पीठ पर ढोया जाता है, वहाँ वह 15 रुपए की हो जाती है। पत्थर सब जगह उपलब्ध हैं। स्थानीय कारीगर पत्थर तराशने का काम करते थे। ईंट, सीमेंन्ट, गारे का काम वे नहीं जानते थे। इसके लिए अब पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार से मिस्त्री आ रहे हैं। पत्थर के मिस्त्री अब पहाड़ों में खोजे से भी नहीं मिलते। पहाड़ के कारीगरों तथा कलाकारी को कैसे बचाया जाय, उस पर कोई चिंतन नहीं हुआ है। जंगल कटान के लिए सरकार ने जो वन निगम बनाया है, वह लकड़ी को हरिद्वार के पास बने वन विभाग के भंडार में रखता है। मैं वहाँ से 300 किलोमीटर दूर उन पहाड़ों पर रहता हूँ, जहाँ वन विभाग जंगलों का कटान करता है। मुझसे कहा जाता है कि लकड़ी चाहिए तो हरिद्वार जाऊँ। हज़ारों किसान अधिकारियों के पास जंगली जानवरों द्वारा खेती नष्ट होने की शिकायतें ले कर गए, लेकिन सरकार ने किसानों की एक भी सभा नहीं बुलाई कि वह तय कर सके कि खेती को किस प्रकार बचाया जा सकता है ? सरकार तथा पहाड़ के लोगों के बीच कोई संवाद नहीं है।
मैं यही कहना चाहता था कि गिरदा को याद करने के बहाने हम इन्हीं समस्याओं पर बात करें और उनका समाधान निकालने की कोशिश करें।
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