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Sunday, March 11, 2012

विचारहीनता के दौर में

विचारहीनता के दौर में


Sunday, 11 March 2012 17:16

कुलदीप कुमार 
जनसत्ता 11 मार्च, 2012: उत्तर प्रदेश  विधानसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी छा गई है। उसे इतनी अधिक सीटें मिली हैं, जितनी की उसे खुद भी उम्मीद नहीं थी। मुझे कई दिनों से बार-बार मधु जी की याद आ रही है। मधु लिमये। अगर आज वे हमारे बीच होते तो क्या खुश होते? क्या इस जीत में उन्हें सामाजिक न्याय और समाजवाद की जीत नजर आती? क्या समाजवादी पार्टी वैसी ही पार्टी है, जैसी पार्टी को किसी जमाने में सोशलिस्ट पार्टी माना जाता था? ऐसे कितने ही सवाल मन में उमड़-घुमड़ रहे हैं। 
इसलिए भी मधु जी की याद आ रही है कि अब उन जैसे नेता भारतीय राजनीतिक परिदृश्य से लगभग गायब हो गए हैं। मुलायम सिंह यादव की गणना उनके शिष्यों में की जाती थी। उनका भी मुलायम सिंह पर विशेष स्नेह था। लेकिन क्या आज की समाजवादी पार्टी में उन्हें वह समाजवाद नजर आता, जो उन्होंने राममनोहर लोहिया से सीखा था? 
मैं मधु लिमये के राजनीतिक विचारों से कभी सहमत नहीं रहा। मेरा रुझान मार्क्सवाद की ओर था और वे लोहिया की घोर मार्क्सवाद विरोधी चिंताधारा के प्रतिनिधि थे। लेकिन मुझे उनकी जिस बात ने बेहद प्रभावित किया वह थी उनकी गांधीवादी सादगी, पारदर्शी ईमानदारी और बौद्धिक प्रखरता। वे राष्ट्रीय आंदोलन के गर्भ से उभरने वाले उन नेताओं की शृंखला की अंतिम कड़ी में थे, जो राजनीतिक और बौद्धिक- दोनों ही स्तरों पर सक्रिय रहते थे और निरंतर राजनीतिक और बौद्धिक कर्म के बीच के संबंध को विकसित करने में व्यस्त रहते थे। 
मैंने पहली बार उन्हें तब देखा और सुना था, जब वे इमरजेंसी के बाद सत्तारूढ़ जनता पार्टी के महासचिव के रूप में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आए थे। कुछ वर्षों बाद उनसे तब भेंट हुई जब वे वेस्टर्न कोर्ट के एक कमरे में रहते थे और लोकदल के महासचिव थे। मैंने उसी समय किसान ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक 'असली भारत' में उप-संपादक के रूप में काम करना शुरू किया था। यों मैं जेएनयू में हिंदी में एमफिल कर रहा था, लेकिन मेरी प्रतिभाहीनता को पहचान कर मेरे अध्यापकों ने मुझे छात्रवृत्ति के योग्य नहीं समझा था। खर्च चलाने के लिए नौकरी करना जरूरी हो गया। मधु जी के पास मुझे 'असली भारत' के प्रधान संपादक अजय सिंह लेकर गए थे। बाद में वे वीपी सिंह की सरकार में मंत्री और फिर फिजी में हमारे उच्चायुक्त भी बने। 
लेकिन मधु जी से लगातार मिलने का सिलसिला तब शुरू हुआ जब उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया और मैं बंबई (अब मुंबई) से निकलने वाले अंग्रेजी साप्ताहिक 'संडे आॅब्जर्वर' के लिए काम कर रहा था, जिसके संपादक विनोद मेहता थे। मधु जी अगर चाहते तो क्या कुछ नहीं पा सकते थे। पर वे पंडारा रोड के एक छोटे से फ्लैट में लगभग निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति की तरह रहते थे- सुरुचिपूर्ण सादगी के साथ। अखबारों में लेख लिख कर ही वे अपने खर्च का इंतजाम करते थे। शायद कुछ किताबों की रॉयल्टी भी आती हो। 
उन दिनों मैं ईएमएस नंबूदरीपाद और बीटी रणदिवे जैसे मार्क्सवादी नेताओं से भी लगातार मिलता रहता था। मैंने पाया कि राजनीति और विचारों में जबर्दस्त भिन्नता के बावजूद इन सबमें अनेक समानताएं थीं। सादा, ईमानदार और एकनिष्ठ जीवन, हमेशा लिखाई-पढ़ाई में लगे रहना और निष्काम भाव से राजनीति करना। मधु जी तो सक्रिय राजनीति छोड़ चुके थे, पर उनका जीवन भी विचारों को समर्पित था। वे राजनीतिक विमर्श में तीखे तेवरों वाले नेता थे, लेकिन व्यक्तिगत व्यवहार में नितांत स्नेहशील। शायद बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि शास्त्रीय संगीत से उन्हें बेहद लगाव था और वह यथासंभव संगीत के कार्यक्रमों में जाने की कोशिश करते थे। एक बार उनकी पत्नी चंपा जी ने बातचीत के दौरान बताया कि मधु जी ने विधिवत शास्त्रीय संगीत सीखा था और युवावस्था में उनकी महत्त्वाकांक्षा शास्त्रीय गायक बनने की थी। लेकिन वे राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े और उनके जीवन की दिशा ही बदल गई। अपने अंतिम वर्षों में उन्होंने एक पुस्तक सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट राजनीतिक धाराओं के बीच सहयोग की संभावना की पड़ताल करते हुए लिखी थी। 

वे निरंतर अपने समय, समाज और राजनीति को समझने-समझाने की कोशिश में लगे रहते थे। ईएमएस और बीटीआर को भी मैंने ऐसा ही पाया। बीटीआर जैसा ठहाके लगाने वाला नेता मैंने दूसरा नहीं देखा। अब कहां हैं ऐसे नेता? आज कोई नेता किताब लिखता है? अगर कोई इक्का-दुक्का नेता लिखता भी है तो अक्सर उन किताबों में संस्मरण ही अधिक होते हैं, विचार मंथन कम। एक समय था, जब हमारे अधिकतर नेता, चाहे वे किसी भी पार्टी में क्यों न हों, सक्रिय बुद्धिजीवी थे। जवाहरलाल नेहरू, आचार्य नरेंद्र देव, संपूर्णानंद, राममनोहर लोहिया, मौलाना अबुल कलाम आजाद, विनायक दामोदर सावरकर, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, हीरेन मुखर्जी, श्रीपाद अमृत डांगे, मानवेंद्रनाथ राय, दीनदयाल उपाध्याय- हर किस्म की राजनीति को परिभाषित और व्याख्यायित करने वाले राजनीतिक-विचारक हमारे देश की राजनीति को दिशा दे रहे थे। जीवन भर राजनीति के शिखर पर रहने वाले इन नेताओं के पास केवल अपने अनुभव, साख और ज्ञानसंपदा की पूंजी थी। 
आज तो विधायक, सांसद और मंत्री बनने के कुछ ही वर्षों के भीतर करोड़पति बनना आम बात हो गई है। अपने चारों ओर नजर दौड़ाइए। बहुजन समाज के झंडाबरदार हों या समाजवाद के, हिंदुत्व के भक्त हों या गांधीवाद   के, सभी अरबों-खरबों रुपए के वारे-न्यारे करते नजर आएंगे। 
आज हमारी संसद के कामकाज में जिन चीजों को स्वाभाविक मान लिया जाता है- मसलन शून्यकाल- उन तौर-तरीकों को मधु लिमये, ज्योतिर्मय बसु और जॉर्ज फर्नांडीज जैसे सांसदों ने कठिन संघर्ष के दौरान संसदीय हथियारों की तरह विकसित किया था। लेकिन इन दिनों सांसदों का अधिकतर समय संसद की कार्यवाही ठप्प करने में खर्च होता है, संसद में सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने में नहीं। वे खुद भी अपने को जनता के प्रति जवाबदेह नहीं समझते। उनका मानना है कि उन्हें चुनाव में जिता कर जनता ने उनकी सभी कारगुजारियों पर स्वीकृति की मुहर लगा दी है और मनमानी करने का लाइसेंस दे दिया है। 
समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता चुनावी जीत के बाद किस तरह मदमत्त होकर विरोधियों पर हमले कर रहे हैं, वह सबके सामने है। सत्ताच्युत मायावती सरकार ने जिस निरंकुश ढंग से पांच साल शासन किया, वह भी सबने देखा है। कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार के खिलाफ झंडा फहराने वाली कांग्रेस कितनी पाक-साफ है, यह भी किसी से छिपा नहीं है। सार्वजनिक जीवन में शुचिता की दुहाई देने वाली भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के आचरण को किसी टिप्पणी की दरकार नहीं है। चारों ओर फैलती जा रही मर्यादाहीनता के इस दौर में अगर मधु लिमये जैसे नेताओं की याद आती है तो यह स्वाभाविक ही है। 
क्या यह स्थिति इसलिए बनी है कि राजनीति से विचारों की विदाई हो गई है? या जो विचार अब भी अपनी उपस्थिति बनाए हुए हैं, उनकी प्रासंगिकता समाप्त या बहुत कम हो गई है? इस नव-उदारवादी अर्थनीति के युग में क्या बाजार ही सर्वाधिक शक्तिशाली सत्ता है? क्या इसीलिए अब हर चीज बेची और खरीदी जाने लगी है? विचारहीन राजनीति हमें कहां ले जाएगी? अब आदर्शों की बातें क्या सिर्फ गैर-राजनीतिक आंदोलन किया करेंगे? और, क्या अण्णा हजारे जैसे घोषित गैर-राजनीतिक आंदोलन देश की राजनीतिक व्यवस्था की चाल और चेहरा बदलने में समर्थ हो सकते हैं? आज ऐसे ही अनेक सवाल खड़े हो जाते हैं और उत्तर नहीं सूझता। 
वर्तमान स्थिति का विकल्प क्या है? उत्तर प्रदेश की जनता ने अपने मताधिकार का प्रयोग करके मायावती की निरंकुश और भ्रष्ट सरकार को हटा दिया। लेकिन उसके स्थान पर जिसे चुना है, क्या वह वास्तव में विकल्प है? क्या अगली सरकार पिछली से बुनियादी तौर पर भिन्न होगी? क्या जनता को सुशासन मिलेगा, उसकी तकलीफें  कम होंगी और भ्रष्टाचार घटेगा? मन आश्वस्त नहीं होता। 
निरंतर छले जाना ही शायद हमारी नियति बन गई है। क्या यह नितांत निराशावादी सोच नहीं है? क्या अब भी मन में यह दृढ़ विश्वास नहीं होना चाहिए कि इस अंधेरे को चीरती हुई कोई किरण अचानक फूटेगी? लेकिन इस परिवर्तन का ध्वजावाहक कौन होगा? कौन-सी सुप्त ऐतिहासिक शक्तियां जागेंगी और राजनीति नई करवट लेगी? पता नहीं। फिलहाल तो यही लगता है कि 'खाक हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक।'

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