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Wednesday, March 21, 2012

लाल अक्‍ल बनाम भगवा अक्‍ल … चंचल मति मोरी!

http://mohallalive.com/2012/03/21/red-vs-saffron/

 नज़रियाविश्‍वविद्यालय

लाल अक्‍ल बनाम भगवा अक्‍ल … चंचल मति मोरी!

21 MARCH 2012 2 COMMENTS

♦ अरविंद मोहन


देश और दुनिया के सामने मुद्दों और समस्याओं की कोई कमी नहीं है पर मुल्क के दोनों प्रमुख विश्वविद्यालयों में पिछले दिनों जो बहस चली और जिन मुद्दों पर कक्षा छोड़कर जुलूस-प्रदर्शन हुए, उन्‍हें शर्मनाक ही कहना उचित होगा। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में चर्चा का विषय था महिषासुर की जाति और कुल। वहां सक्रिय एक छात्र संगठन इस दैत्य माने गये मिथकीय पात्र को यादवों का पुरखा मान कर उनका शहादत दिवस मनाना चाहता था। खुद को हिंदुत्व का ठेकेदार माननेवाली जमात के लोगों ने इसका विरोध किया और विवाद बढ़ गया। जेएनयू के लिए यह कोई बहुत अटपटी चीज नहीं है। वहां से निकले और अभी उसी नाम की रोटी खानेवाले एक दलित बौद्धिक ने इंग्लिश माई की पूजा कराना और मकाले बाबा को दलित उद्धारक मान कर उनकी जयकार करनी शुरू कर दी है। उन्‍हें इंगलिश मीडिया ने काफी मान-सम्मान भी दिया।

महिषासुर को अपना पूर्वज बतानेवाले जीतेंद्र यादव और उनके साथी भी ठीकठाक संख्या में होंगे, तभी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की तरफ से हुए 'अपमान' का जवाब देने निकले होंगे। पर दिल्ली विश्वविद्यालय में तो बाकायदा जंग लड़ी जा रही है। वहां इतिहास आनर्स कोर्स में शामिल एक लेख को निकालने और बनाये रखने पर जो लड़ाई छिड़ी है, उसमें मीडिया के सारे संपर्कों का इस्तेमाल किया जा रहा है, जुलूस निकाले जा रहे हैं, धरना-प्रदर्शन हो रहा है। और लड़ाई जेएनयू की तरह बच्चों भर में सीमित नहीं रह गयी है – इसमें अध्यापक और उनके पीछे उनका राजनीतिक परिवार शामिल हो गया है – एक ओर संघ परिवार है तो दूसरी ओर माकपा और कम्युनिस्‍ट परिवार।

वैसे तो इस लड़ाई के केंद्र में एके रामानुजम का रामायण के तीन सौ रूपों वाला शानदार लेख है, पर इतिहास देखें तो इन दोनों जमातों को लड़ाई के लिए ऐसे बहाने की भी जरूरत नहीं रही है। कभी वाटर तो कभी फायर फिल्म की शूटिंग तो कभी हुसैन साहब की पेटिंग तो कभी कोई बहाना। ये मजे से और इससे भी ज्यादा जोर-शोर से लड़ लेते रहे हैं। रामानुजम के लेख में स्वाभाविक तौर पर रामायण के उन रूपों की भी चर्चा है, जिनमें राम और सीता के भिन्न संबंधों का जिक्र है। रावण का रूप अलग है, कौवा बने जयंत द्वारा अशोकवाटिका में सीता के पैर की जगह वक्ष पर चोंच मारने का जिक्र है। राम कथा अगर विश्वव्यापी है, तो उसके रूप बदले हुए ही मिलेंगे और उसका अध्ययन चाहे बाबा कामिल बुल्के करें या संघी हरबशलाल ओबराय या फिर एके रामानुजम सभी इस विविधता को देखे और बताएंगे ही।

असली बात है कि बारहवीं पास बच्चों को यह विविध रूप बताया जाए या नहीं। अगर आप राम कथा पढ़ाने चलेंगे तब तो यह चीज सांप्रदायिक हो जाएगी। दूरदर्शन पर रामायण-महाभारत दिखाने का इस आधार पर विरोध हो चुका है। आज भी मुल्क में सांप्रदायिकता के फैलाव का दोष उन धारावाहिकों के प्रदर्शन को दिया जाता है। और राम को सीता का भाई या रावण को सीता का बाप बताने वाली कथा या उसका उल्लेख करने वाला लेख पढ़ाना उससे ज्यादा अनर्थकारी है क्‍योंकि उन बच्चों को कभी ज्ञात तौर पर सही या प्रचलित रामकथा तो पढ़ायी नहीं गयी है। हम सब मानते हैं कि हर धर्मग्रंथ में कुछ दोष होंगे, पर ज्ञान और रचनात्मकता में उनकी बराबरी बहुत कम किताबें ही कर सकती हैं। सभी प्रमुख धर्मग्रंथों का अध्ययन कहीं नहीं चलता – या तो एक ग्रंथ का रट्टा लगवाया जाता है या सेकुलर जमात किसी को भी पढ़ाना गलत मानता है।

और फिर इस जमात को सचमुच की सांप्रदायिकता से लड़ने की जरूरत हो तो इसके हाथ-पांव फूल जाते हैं। फिर जब एलके आडवाणी राम मंदिर आंदोलन की अलख जगाने के लिए राम रथ जैसे सिंबल के साथ निकलते हैं, तो हमारी सेकुलर बिरादरी सीता को राम की बहन बतानेवाली प्रदर्शनी को देश भर में घुमाने की जिद करती है। दुनिया का कोई भी धार्मिक समाज ऐसे मौके पर ऐसी बेवकूफी पर चार डंडे ही लगाता। अगर इस जमात को हिम्मत हो, तो वह क्राइस्‍ट, नानक या मोहम्मद साहब के बारे में ऐसी बेवकूफी कर के दिखाये।

अब इसे मात्र संयोग मानना गलत होगा कि आडवाणी एक बार फिर रथ पर सवार हैं (भले ही रथ लोहे का हो और उसे इंजन खींचता हो) और लाल झंडा परिवार रामायण के विविध रूपों की चिंता में सूखता जा रहा है। कहने को यह लाल परिवार भगवा रंग का जोर बढ़ने के लिए पहले गांधी, फिर लोहिया और चौहत्तर के जेपी को दोषी बताता है, पर असल में यह खुद ही संघ परिवार को चर्चा और प्रमुखता देने का कोई अवसर नहीं चूकता। और भगवा परिवार को भी संघ से नकली लड़ाई लड़ने में मजा आता है क्योंकि उसे समाज और मुल्क के सामने उपस्थित बड़े मुद्दों पर कुछ करना-कहना नही होता।

दिल्ली विश्वविद्यालय में लाल परिवार की एक सदस्य हैं निवेदिता मेनन। जब अन्ना आंदोलन अपने चरम पर था, तो उन्‍होंने एक जबरदस्त लेख लिखा कि हर बड़े जन आंदोलन के समय वाम धड़ा क्यों चुप बैठ जाता है या गलत पक्ष में होता है और बाद में समीक्षा करते हुए अपनी ऐतिहासिक भूल स्वीकारता है। वह क्यों नहीं आंदोलनों में भागीदारी करके यह सब मूल्‍यांकन करता है। जब बयालीस से लेकर दो हजार ग्यारह तक के हर आंदोलन में लेफ्ट आउट ही रहेंगे तो यह सवाल स्वाभाविक तौर पर उठेगा ही। संघ परिवार पर भले बयालीस में आंदोलन से दूर रहने और अंगरेजों की खुफियागिरी करने का आरोप हो, बाद के आंदोलनों में वह भागीदारी का प्रयास तो करता ही रहा है।

यह भी अलग मुद्दा नहीं है कि भगवा और लाल परिवार गंभीर और वैचारिक सफाई वाले तथा साफ निष्‍ठा वाले मसलों से बचकर ही बहस करते हैं। उनमें कभी गरीबों की संख्या, भूमि अधिग्रहण, अन्ना आंदोलन, भोजन का अधिकार विधेयक, सूचना अधिकार कानून पर उठते सवाल और उदारीकरण जैसे मुद्दों पर बहस नहीं होती। दोनों ही ने अलग-अलग ढंग से उदारीकरण पर बहस शुरू की लेकिन संघी 'स्वदेशी' वाजपेयी सरकार के फैसलों में कहीं रोड़ा नहीं बना और वामपंथी विरोध कब टाटा और सालम ग्रुप के लिए जमीन छीनने से लेकर हत्या-बलात्कार तक पहुंच गया, यह किसी लाल बुद्धिजीवी को पता नहीं चला। इसमें दोनों पक्षों को अगर वाटर-वाटर, फायर-फायर और रामायण-रामायण खेलना ज्यादा अच्छा लगता है, तो इसमें हैरान होने की कोई बात नहीं होनी चाहिए। पर इस चक्कर में देश के दोनों शीर्षस्‍थ विश्वविद्यालय और बौद्धिक आ जाएं, तो इसे गंभीर गलती माननी चाहिए।

(अरविंद मोहन। वरिष्‍ठ पत्रकार। पच्चीस साल से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय। जनसत्ता, हिंदुस्तान, इंडिया टुडे, अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों से जुड़े रहे। फिलहाल न्‍यूज चैनलों में सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों के रेगुलर पैनलिस्‍ट। कई अखबारों में स्‍तंभ लेखन। बिहार के प्रवासी मजदूरों पर बिड़ला फेलोशिप के तहत रिसर्च। उनसे arvindmohan2000@yahoo.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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