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Sunday, March 18, 2012

दवा परीक्षण के गोरखधंधे में

दवा परीक्षण के गोरखधंधे में 


Sunday, 18 March 2012 11:23

यह तथ्य आमफहम है कि विज्ञान की दुनिया में परीक्षणों के लिए चूहों, गिनीपिगों और बंदरों वगैरह का इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन यह बात शायद कम लोग ही जानते हैं कि इंसानों पर भी इस तरह के परीक्षण होते हैं। दरअसल, नई दवाओं को बाजार में उतारने से पहले औषधि निर्माता कंपनियां मनुष्यों पर उनका परीक्षण कराती हैं।  इस परीक्षण को दवा परीक्षण या चिकित्सीय परीक्षण कहते हैं। औषधि निर्माता कंपनियां अपनी शोध प्रयोगशालाओं में अनुसंधान द्वारा नई औषधियों का विकास करती हैं। सबसे पहले चूहों की एक प्रजाति  पर इन दवाओं का परीक्षण किया जाता है। प्रयोग की सफलता पर मनुष्यों पर उन्हें आजमाया जाता है। दवा की बिक्री से पहले मनुष्यों पर किए जाने वाले दवा परीक्षण या चिकित्सीय परीक्षण को अनिवार्य माना जाता है। गौरतलब है कि दवा परीक्षण में दवाओं का दुष्प्रभाव होने के साथ-साथ परीक्षण के लिए स्वयं को प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति की जान का भी जोखिम रहता है। असल में, हाल के वर्षों में भारत जैसे विकासशील देशों में दवा परीक्षण का धंधा तेजी से पनपा है। दरअसल, विधि-सम्मत ढंग से किए जाने वाले औषधि परीक्षण को लेकर कोई समस्या नहीं है। समस्या तब पैदा होती है जब ये परीक्षण अवैध रूप से किए जाते हैं। हाल ही में, ऐसे अवैध औषधि परीक्षणों की जांच की मांग उठाने वाली एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद और मध्य प्रदेश  सरकार से जवाब तलब किया है। इसके बाद इस मुद् दे पर बहस तेज होगई है। 
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दवा परीक्षण के लिए चार चरणों की व्यवस्था लागू कर रखी है। इनमें से- पहले चरण में, औषधि के विषैले प्रभाव का आकलन किया जाता है। दूसरे चरण में, दवा की एक निश्चित मात्रा से होने वाले प्रभावों और  दुष्प्रभावों की जानकारी इकट्ठा की जाती है। इन दोनों चरणों का परीक्षण अत्याधुनिक सुविधा संपन्न विकसित देशों में किया जाता है। परीक्षण के लिए स्वयं को प्रस्तुत करने वाले लोगों के एक लघु समूह का चयन पहले दोनों चरणों के अध्ययन परीक्षण के लिए किया जाता है। संभावित खतरों को पहचान में रखते हुए इस चयनित समूह के लोगों को मोटी रकम भी दी जाती है।
तीसरे चरण में, अधिक (एक हजार से तीन हजार) लोगों पर परीक्षण की जरूरत होती है। इसके लिए दवा निर्माता कंपनियां खासतौर से विकासशील देशों के निवासियों का चुनाव करती हैं। परीक्षणों से मिले नतीजों के आधार पर दवा की उपयोगिता साबित होने पर चौथे यानी अंतिम चरण में औषधि नियंत्रक प्राधिकरण से दवाओं को बाजार में उतारने की इजाजत मांगी जाती है। लाइसेंस मिलने पर दवाओं को पहले सीमित बाजार में उतारा जाता है और फिर उनकी व्यापक बिक्री की व्यवस्था की जाती है। तीसरे चरण के तहत विकासशील देशों में किया जाने वाला दवा परीक्षण ही समस्या की असली जड़ है। सवाल है कि बहुराष्ट्रीय औषधि निर्माता कंपनियां, विकासशील देशों को ही  आखिर इस काम के लिए क्यों चुनती हैं? इसका सीधा- सा जवाब है कि पश्चिमी देशों में दवा परीक्षण के लिए बने सुरक्षा के कड़े नियम और परीक्षण में आने वाली अत्यधिक लागत। आज दुनिया के करीब 178 देशों में होने वाले दवा परीक्षणों की संख्या करीब 1.2 लाख है। इन देशों में भारत के अलावा चीन, इंडोनेशिया और थाईलैंड वगैरह शामिल हैं।
करीब सवा अरब की जनसंख्या वाला भारत देश बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के शोध कार्यों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र है। इसके पीछे खासतौर से दो कारण हैं। एक तो,  यहां अत्यधिक जीन विविधता मौजूद है। दूसरे, पश्चिमी देशों के मुकाबले यहां दवा परीक्षण की लागत बहुत ही कम यानी करीब बीस फीसद बैठती है। एक और वजह यह है कि भारत में दवा परीक्षण संबंधी कानून भी अधिक कठोर नहीं हैं। एक अनुमान के मुताबिक भारत में करीब डेढ़ लाख लोगों पर करीब 1600 दवाओं के परीक्षण किए जा रहे हैं। इनमें खासतौर, से मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश के गरीब, अनपढ़ और आदिवासी तबके से संबंध रखने वाले लोग हैं।
दवा परीक्षण पर प्रभावी नियंत्रण के लिए सक्षम निगरानी तंत्र का होना बहुत आवश्यक है। औषधि परीक्षण में नैतिक सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए इस संबंध में अंतरराष्ट्रीय मानदंड 'डिक्लेरेशन आफ हेलसिंकी' के तहत निर्धारित किए गए  हैं।  इसे वर्ल्ड मेडिकल एसोससिएशन, जो भारत सहित विश्व के 85 देशों में चिकित्सा संगठनों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था है, ने 1964 में जारी किया था। 1996 में इंटरनेशनल कांफ्रेंस आन हार्मोनाइजेशन ने भी औषधि परीक्षण के दौरान पालन किए जाने वाले कुछ मार्गदर्शक नियमों को जारी किया जिन्हें 'गुड क्लिनिकल प्रैक्टिस गाइडलाइंस' नाम से जाना जाता है।

भारत सरकार ने भी इस दिशा में कुछ कदम उठाए हैं। ड्रग एंड कास्मेटिक एक्ट, 1940 में संशोधन किया गया। इस संशोधित अधिनियिम की 'वाई' अनुसूची औषधि परीक्षणों पर लागू होती है। इसके मुताबिक भारतीय औषधि महानियंत्रक और नैतिक सिद्धांतों का ध्यान रखने वाली 'इथिकल कमेटी' औषधि परीक्षणों की जांच करेंगी। इंडियन काउंसिल आफ मेडिकल रिसर्च ने भी इथिकल गाइडलाइंस फार बायोलाजिकल रिसर्च आन ह्यूमन पार्टिसिपेशन द्वारा मानव परीक्षण के लिए मार्गदर्शक नियमों को लागू किया है। इन नियमों के तहत रोगी के हित और सुरक्षा का विशेष   ध्यान रखा गया है। लेकिन सच्चाई यह है कि इन दिशा-निर्देशों और नियमों के पालन में घोर अनियमितताएं और पारदर्शिता का अभाव देखने को मिला है। कहने को तो भारतीय चिकित्सा परिषद ने व्यासायिक संहिता, एटिकेट एंड इथिकल रेग्युलेशन नामक नियंत्रक नियमावली  जारी की है, लेकिन सवाल तो इनके अनुपालन का है। विदेशी दवा कंपनियां चालाकी से इन नियमोें को धता बता चुकी हैं। और नियमों का पालन तो तभी होता है जब उनका उल्लंघन होने पर कोई आवाज उठाए। गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले और अनपढ़ और आदिवासी लोगों को दवा कंपनियां जानबूझ कर दवा परीक्षण के लिए चुनती हैं। आर्थिक प्रलोभन और नियमों और अपने अधिकारों की जानकारी न होना सोने में सुहागा का काम करता है और ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां दवा परीक्षण के कारोबार में चांदी काटती हैं।
भारत में चल रहे अवैध दवा परीक्षण की जांच की सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका पर अभी फैसला आना बाकी है। 
सुप्रीम कोर्ट में औषधि परीक्षण को लेकर हाल ही में दाखिल जनहित याचिका में जिन तथ्यों का समावेश किया गया है उन्हें अधिकांश रूप से 'डाउन टू अर्थ' पत्रिका के 30 जून 2011 के अंक में प्रकाशित 'इथिक्स आॅन ट्रायल' शीर्षक लेख में से लिया गया है। लेख में देश भर में अवैध और अनैतिक ढंग से चलने वाले औषधि परीक्षण के धंधे का पर्दाफाश किया गया है। लेख में दिए गए कुछ उदाहरणों की चर्चा यहां प्रासंगिक होगी-
नौ साल की रानी के माता-पिता जानकी और अमर पटेल उससे दूर रहते हैं जिसके कारण रानी उनसे बहुत नाखुश है। इसका कारण यह है अमदाबाद के बापू नगर के अपने निवास स्थान से कोई दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक केंद्र में पति-पत्नी दोनों को बीच-बीच में औषधि परीक्षण में भाग लेने के लिए जाना पड़ता है। एक परीक्षण से उन्हें पांच हजार रुपए से लेकर छह हजार रुपए तक मिल जाते हैं।
अपनी बेटी रानी के स्कूल का खर्च निकालने और परिवार के लिए दो जून की रोटी कमाने के लिए ही उन्हें मजबूरन इस परीक्षण के लिए हामी भरनी पड़ी थी। जीए रिसर्च इंडिया लिमिटेड, जो एक कांटैÑक्ट रिसर्च आर्गेनाइजेशन है, ने परीक्षण से पूर्व जानकी से इस बात की सहमति ली थी कि क्या वह कैंसर की दवा के परीक्षण के लिए राजी होगी? उसे यह भी बताया गया कि दवा के इतर या कुप्रभाव के चलते उसे मतली और सिरदर्द का भी शिकार होना पड़ सकता है।
पैसों के लिए जानकी ने हां कर दी। लेकिन दो साल के अंदर जानकी को हृदय रोग और दर्द के लिए दवाएं शुरू करनी पड़ीं। देखते-देखते वह जोड़ों के दर्द की बीमारी का भी शिकार हो गई। जानकी के पति अमर पटेल का स्वास्थ्य तो केवल तीन परीक्षणों के बाद ही जवाब दे गया। उसे गहरी कमजोरी ने आ घेरा। अब आलम यह है कि रह रह कर उसकी आंखों के आगे अंधेरा छाने लगता है। औषधि परीक्षण के गिनीपिग बने जानकी और अमर पटेल अब औषधि परीक्षण से उत्पन्न दूसरे प्रभावों और शारीरिक विकारों से संघर्ष कर रहे हैं।
मध्य प्रदेश निवासी सूरज और रीना यादव अपने चार वर्षीय बेटे दीपक के पेट का इलाज करा रहे थे। जब बेटे की हालत ठीक होने के बजाय और बिगड़ने लगी तब उन्हें पता चला कि उनके बेटे पर जानसन एंड जानसन कंपनी द्वारा विकसित एक प्रति अल्सर दवा रेबोप्राजोल का परीक्षण किया जा रहा था। इस तरह कुछ मरीजों को भरोसे में लेकर और कुछ को बिना बताए ही अवैध और अनैतिक ढंग से औषधि परीक्षण किए जाते हैं।
भारत, चीन, रूस और ताईवान के अलावा लातिन अमेरिका और पूर्वी यूरोप के देशों को तीसरे चरण के दवा परीक्षण के लिए खासतौर पर चुना जाता है, क्योंकि इसमें लागत बहुत कम आती है। सचमुच, दवा परीक्षण का कारोबार बहुत फल-फूल चुका है। 2005 में यह कारोबार 423 करोड़ का था। 2010 में बढ़कर यह 1611 करोड़ हो   गया है।   इस साल के अंत तक इसके 2721 करोड़ हो जाने की संभावना है।

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