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Sunday, March 18, 2012

उत्पीड़न का हथियार

उत्पीड़न का हथियार 


Sunday, 18 March 2012 11:51

अनिल चमड़िया 
जनसत्ता 18 मार्च, 2012: दिल्ली स्थित एम्स में अनुसूचित जनजाति के छात्र अनिल कुमार मीणा की आत्महत्या की वजह अंग्रेजी की मार है। खबरों के मुताबिक दिल्ली के न्यू उस्मानपुर में बारहवीं कक्षा के एक छात्र ने अंग्रेजी में पर्याप्त नंबर नहीं मिलने से हताश होकर आत्महत्या कर ली। अनिल की मौत की दो वजहें हैं। एक तो उसकी दलित पृष्ठभूमि, और दूसरी वजह, अंग्रेजी को सुन कर समझने की अयोग्यता। जाति की तरह भारत में अंग्रेजी भी उत्पीड़न का एक हथियार है। मनीष इस आत्महत्या की स्थिति के विरोध में उभरे आंदोलन का नेता है। वह कहता है कि सामाजिक रूप से पिछड़ों के साथ तो एम्स में भेदभाव होता ही है, उन लोगों की भी उपेक्षा होती जो अंग्रेजी में दीक्षित और दक्ष नहीं हैं। इस तरह दलितों के उत्पीड़कों के लिए अंग्रेजी एक लठैत की भूमिका निभा रही है। मीणा की खुदकुशी के बाद कहा जा रहा है कि दलितों और गैर-अंग्रेजी माध्यम से पढ़े विद्यार्थियों के लिए अंग्रेजी की विशेष कक्षाएं चलाई जानी चाहिए। यह सुझाव किस तरह उत्पीड़न को बरकरार रखने का तर्क है, इसे समझना होगा।
एक पत्रकार-मित्र ने दो-एक महीने पहले जब झांसी मेडिकल कॉलेज में 1975 में हुई रामप्रसाद कोरी की आत्महत्या की घटना सुनाई तो दिमाग में सबसे पहले उसकी जातीय उत्पीड़न होने की आशंका उठी, क्योंकि पिछले कई वर्षों से शिक्षण संस्थानों में समाज के वंचित तबकों के विद्यार्थियों की आत्महत्याओं की कई घटनाएं सामने आती रही हैं। पत्रकार-मित्र के मुताबिक वह बेहद होनहार लड़का था। पहले उत्पीड़न शिक्षण संस्थाओं में दाखिले को रोकने के रूप में नजर आता था। बाद में यह कुछेक दलितों के लिए दाखिले की व्यवस्था के बाद शिक्षण संस्थानों के औजार के साथ सामने आया। 2006 के बाद शिक्षण संस्थानों में दलितों और आदिवासियों के अलावा समाज के विभिन्न वंचितों को लगभग आधी सीटों पर दाखिले की व्यवस्था की गई। शिक्षण संस्थानों में समाजशास्त्र पूरी तरह बदला हुआ देखना हो तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी देखा जा सकता है। जेएनयू के छात्रसंघ की नवनिर्वाचित टीम ने गैर-अंग्रेजी विद्यार्थियों के लिए पठन-पाठन की भाषा को एक बड़ा मुद्दा माना है। वहां इसके लिए एक आंदोलन की तैयारी चल रही है। ये वही लोग हैं जो शिक्षण संस्थानों में वंचितों के दाखिले सुनिश्चित कराने की भी लड़ाई लड़ते रहे हैं। 
चार वर्षों के दौरान वैसी अठारह घटनाओं की पिछले साल तैयार की गई एक सूची सामने आई है जिसमें आत्महत्या के बाद दलित विद्यार्थियों के परिवार वालों ने आवाज उठाई। ये आत्महत्याएं मेडिकल कॉलेजों के अलावा आइआइटी, आइआइएसी के अलावा तकनीकी शिक्षा के कई संस्थानों में हुर्इं। विरोध की आवाज न उठी होती तो शायद ये अठारह घटनाएं भी संकलित नहीं हो पातीं। 4 मार्च 2012 को दिल्ली के एम्स में अनिल कुमार मीणा की आत्महत्या भी विरोध की आवाज उठने के कारण सामने आ सकी। क्योंकि इस संस्थान में भी आत्महत्या की घटना नई नहीं है। यहां जातीय उत्पीड़न लगातार जारी रहा है। 2006 में आरक्षण विरोधी आंदोलन की पृष्ठभूमि में बनी थोराट समिति को तो बाकायदा एम्स में जातीय उत्पीड़न का अध्ययन करने के लिए तैनात किया गया तो सार्वजनिक रूप से उसका वीभत्स रूप दिखा था।
लखनऊ के छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय में करीब पचास ऐसे छात्र हैं जो वर्षों से पास नहीं कर पाए हैं और इनमें ज्यादातर दलित हैं। चिकित्सा विवि के प्रगतिशील मेडिकोज मंच के अध्यक्ष डॉ अजय कुमार सिंह के मुताबिक 2002 से 2010 के दलित और आदिवासी विद्यार्थी सिर्फ फिजियोलॉजी में फेल हो रहे हैं। फिजियोलॉजी विभाग की दलितों के बारे में राय का अंदाजा इसी से लगाया है कि दलित विद्यार्थियों से यह कहा जाता है कि 'तुम लोग यहां सीट खराब करने क्यों आए हो, तुम्हारी वजह से हमारे बच्चों को प्राइवेट कॉलेजों में पढ़ाई करनी पड़ती है।' पिछले वर्ष यहां भी एक दलित छात्र ने उत्पीड़न से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी। एम्स और सफरदजंग में भी ऐसे कई उदाहरण हैं जब दलित और आदिवासी विद्यार्थी एक शिक्षक के तहत तो फेल हुए, लेकिन जब उस शिक्षक के प्रभाव से मुक्त परीक्षा आयोजित कराई गई तो वे पास कर गए। दलितों और आदिवासियों के फेल-पास की घटनाएं मोटेतौर पर जातीय उत्पीड़न का ही हिस्सा हैं। फेल-पास प्रक्रिया में सामाजिक पूर्वग्रह सक्रिय रहते हैं और वे पूर्वग्रह यों ही समाप्त नहीं हो सकते। पूरी प्रक्रिया सामाजिक न्याय की कसौटी पर नए तरीके से खड़ी करनी होगी।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में दाखिले के लिए मौखिक परीक्षा में दलित, पिछड़े और आदिवासी विद्यार्थियों के साथ होने वाले भेदभाव की एक सूची तैयार की गई है। इस सूची में ऐसे कई विद्यार्थी हैं जिन्हें लिखित परीक्षा में तो पैंतीस से लेकर तिरपन अंक मिले, लेकिन मौखिक परीक्षा में एक से आठ अंक तक ही मिले। जबकि गैर-आरक्षित वर्ग के दो विद्यार्थियों को लिखित परीक्षा में पैंतालीस नंबर मिले तो मौखिक में छब्बीस नंबर। अब जेएनयू में मांग की जा रही है कि शिक्षकों के हाथों में मौखिक परीक्षा के जो नंबर हैं उनमें भारी कटौती की जाए। 
अनिल कुमार मीणा बाहरवीं की बोर्ड की परीक्षा में पचहत्तर प्रतिशत अंक लाया था और वह एम्स में दाखिले की अखिल भारतीय परीक्षा में भी आदिवासी श्रेणी में सबसे ऊपर दूसरे नंबर पर था। लेकिन वह अंग्रेजी भाषा सुन कर समझ लेने की क्षमता विकसित नहीं कर पाया था। महज विशेष कक्षाओं से   किसी भाषा को अपने सोचने-विचारने के माध्यम के रूप में विकसित किया जा सकता है? विश्वविद्यालयों में केवल भाषाई उत्पीड़न की घटनाओं का एक लेखा-जोखा तैयार किया जाए तो शर्मसार कर देने वाले तथ्य सामने आएंगे। दर्जनों ऐसे होनहार विद्यार्थी हैं जो अंग्रेजी सुन कर नहीं समझ पाने और अंग्रेजी में अपने अर्जित ज्ञान को व्यक्त नहीं कर पाने के कारण संस्थान से बाहर हो रहे हैं। उनमें बड़ी तादाद सामाजिक तौर पर पिछड़ी पृष्ठभूमि वालों की है।
भाषा का प्रश्न इस पृष्ठभूमि के साथ स्वाभाविक रूप से जुड़ा हुआ है। मजे की बात तो यह है कि इस देश में उच्च शिक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता कानूनी नहीं है, लेकिन वह  अनिवार्य की तरह लागू है और उसी के पक्ष में वातावरण बना हुआ है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी 2006 के बाद दाखिले में आरक्षण को लागू तो किया गया, लेकिन ऐसे विद्यार्थियों को विफल और अयोग्य ठहराने के लिए अंग्रेजी का बोझ लदा दिखता है। जबकि यह व्यवस्था है कि पढ़ने, सीखने के लिए अपनी भाषाओं में अनुवाद करा कर दूसरी भाषाओं की पुस्तकें मुहैया कराई जाएं। बड़ी आसानी से यह कह दिया जाता है कि जो विद्यार्थी अंग्रेजी में कमजोर हैं उनके लिए अंग्रेजी सिखाने की अलग से व्यवस्था की जानी चाहिए। लेकिन उस व्यवस्था पर जैसे कोई बात करना नहीं चाहता है कि विद्यार्थियों को उनकी भाषा में किताबें उपलब्ध कराई जाएं जिस भाषा में उसके पास अपने विषय की समझ है। अंग्रेजी पर ही जोर देने वाले लोग और संस्थाएं उत्पीड़न को कम करने में मददगार नहीं हो सकते। जिस तरह से बहुतों की अंतर्चेतना में दलितों के खिलाफ पूर्वग्रह सक्रिय रहते हैं उसी तरह से ऐसी समझ वालों की अंतर्चेतना पूंजीवादी सोच की होती है। इनमें थोराट समिति के अध्यक्ष भी शामिल हैं। उन्होंने भी यह कहा कि अंग्रेजी की विशेष व्यवस्था होनी चाहिए, लेकिन यह कहना ज्यादा मुनासिब होता कि अंग्रेजी की किताबों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराया जाता और भारतीय भाषाओं में मेडिकल शोध को बढ़ावा दिया जाता। यह सुझाव एक उत्साह और भरोसे का संचार करता।
किसी भी विषय की भाषा का रिश्ता केवल पढ़ने-पढ़ाने वालों से नहीं जुड़ा रहता है, पूरे समाज से उस विषय का रिश्ता होता है। चिकित्सा विज्ञान, कानून, अर्थशास्त्र के तंत्र से पूरा समाज ठगा जाता है तो इसकी एक वजह इन विषयों को अंग्रेजी तक सीमित रखना है। इसका लाभ जो वर्ग उठाता है, उसका जोर हमेशा अंग्रेजी के ज्ञान पर होता है, क्योंकि इससे  मुट्ठी भर लोगों को ही तंत्र में समायोजित करने की तकलीफ उठानी पड़ती है। इस तर्क से तो अर्थशास्त्र, वाणिज्य, विज्ञान, समाजशास्त्र सभी विषयों के विद्यार्थियों के लिए अंग्रेजी की विशेष कक्षाएं शुरू की जानी चाहिए। उससे तो आम लोगों के पैसे पर अंग्रेजी का बड़ा ढांचा खड़ा करने की योजना को ही कामयाब किया जा सकता है।

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