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Saturday, March 17, 2012

रुको, मत बहलाओ खुद को वसंत से… और सुबह के उजास से!

http://mohallalive.com/2012/03/17/prakash-k-ray-on-poetry-of-arab/ 

रुको, मत बहलाओ खुद को वसंत से… और सुबह के उजास से!

17 MARCH 2012 ONE COMMENT

♦ प्रकाश के रे

मैं. सोचता था कि कविता सब कुछ बदल सकती है, इतिहास बदल सकती है और इंसानियत का भाव पैदा कर सकती है, और यह भी कि यह भ्रम बहुत जरूरी है ताकि कवि हालात से जुड़ें और भरोसा रखें। लेकिन अब मैं सोचता हूं कि कविता सिर्फ कवि को ही बदलती है।

'दर्ज करो कि मैं एक अरबी हूं' जैसी प्रभावी कविता लिखने वाले फलस्तीनी कवि महमूद दरवेश अगर आज जीवित होते तो किसी निराश क्षण में कहे गये अपने इन शब्दों को खुद ही खारिज कर देते। पिछले साल से चल रही अरब में क्रांति की बयार में अरबी कवियों की गूंजती कविताएं बदलते इतिहास की गवाह-भर ही नहीं बन रहीं, बल्कि अहम किरदार भी निभा रही हैं। ट्यूनीशिया से मोरक्को तक उत्तरी अफ्रीका और खाड़ी का कोई भी देश ऐसा नहीं है जिसने इस बरस तानाशाही और भ्रष्ट सत्ता-तंत्र के विरुद्ध लोगों के नारे नहीं सुना। अरब की इस बयार में इतिहास, विचारधाराएं, राजनीतियां, समझदारियां, धर्मों के ध्वज – सब के सब इधर-उधर हो गये हैं। अरब की इन क्रांतियों को समझने के लिए हमें उसकी कविताओं के पास जाना होगा, जहां दर्ज हैं जिंदगी और उसका दर्द। यही कारण है कि कविताएं ही नेतृत्व कर रही हैं इस क्रांति का। हर चौक, गली, सड़क, जुलूस और मोर्चे में कविताएं पढ़ीं और गायी जा रहीं हैं।

अरब में यह आग उस दिन धधक उठी थी, जब 17 दिसंबर 2010 को एक फेरीवाले मोहम्मद बौउजीजी ने ट्यूनीशिया के एक कस्बे सीदी बौउजिद में सरकारी कर्मचारियों की हरकतों से तंग आकर खुद को आग लगा ली थी। अरब के देशों में सत्ताधीशों और उनके कारिंदों के ऐसे जुल्म कोई नयी बात नहीं थी। बरसों पहले सीरियाई कवि निजार कब्बानी ने लिखा था…

यदि मेरी रक्षा का वादा किया जाए,
यदि मैं सुल्तान से मिल सकूं
मैं उनसे कहूंगा : ओ महामहिम सुल्तान
मेरे वस्त्र तुम्हारे खूंखार कुत्तों ने फाड़े हैं,
तुम्हारे जासूस लगातार मेरा पीछा करते हैं।
उनकी आंखें
उनकी नाक
उनके पैर मेरा पीछा करते हैं

नियति की तरह, भाग्य की तरह

वे पूछताछ करते हैं मेरी पत्नी से
और लिखते हैं नाम मेरे तमाम दोस्तों के।

ओ सुल्तान!

क्योंकि मैंने की गुस्ताखी तुम्हारी बहरी दीवारों तक पहुंचने की,
क्योंकि मैंने कोशिश की अपनी उदासी और पीड़ा बयान करने की,
मुझे पीटा गया मेरे ही जूतों से।

ओ मेरे महामहिम सुल्तान!

तुमने दो बार हारा वह युद्ध *
क्योंकि हमारे आधे लोगों के पास जुबान नहीं है।

(*1948 और 1967 के अरब-इजरायल युद्ध, जिनमें अरब की संयुक्त सेना की हार हुई थी…)


बौउजीजी इस दौर का पहला अरबी नहीं था, जिसने आत्महत्या की कोशिश की थी लेकिन उसका आत्मदाह मुश्किलों से मुक्ति का प्रयास भर नहीं था। अगर ऐसा होता, तो वह चुपचाप घर के एक कोने में खुदकुशी कर लेता। इस्लामी कानूनों के मुताबिक खुद को जलाकर मरना सबसे बड़े पापों में शुमार किया जाता है। इस गरीब ठेलेवाले ने अपने इस कदम को एक राजनीतिक पहल का रूप दिया और अपनी खुदकुशी के लिए उसने जगह चुना शहर का चौराहा। इस घटना ने बेन अली और उसके शासन के भय और आतंक के साये में जी रही ट्यूनिशियाई जनता को झकझोर कर रख दिया। हस्पताल में बुरी तरह जला हुआ पच्चीस साल का बौउजीजी मुक्ति का नायक बन चुका था। अस्सी के दशक पहले उसके देश के एक कवि ने मरते-मरते जब यह पंक्तियां लिखी थीं, तब उसकी भी उम्र इतनी ही थी…

अरे ओ! अन्यायी तानाशाहो
अंधेरे के प्रेमियो
जिंदगी के दुश्मनो

तुमने मजाक बनाया निरीह लोगों के घावों का, और उनके खून से रंगी अपनी हथेलियां
रुको, मत बहलाओ खुद को वसंत से, साफ आसमान से और सुबह के उजास से

क्योंकि क्षितिज से अंधेरा, तूफानों की गड़गड़ाहट और हवा के तेज झोंके
तुम्हारी ओर आ रहे हैं

सावधान हो जाओ क्योंकि राख के नीचे आग दबी है
जो कांटे बोएगा उसे चुभन मिलेगी

तुमने लोगों के सर काटे और काटे उम्मीद के फूल, बालू के गड्ढों को सींचा
खून से और आंसुओं से तब तक कि वे भर नहीं गये

खून की नदियां तुम्हें बहा ले जाएंगी और तुम जलोगे क्रुद्ध तूफान में…


अबू अल कासिम अल शाब्बी की यह कविता ट्यूनीशिया के प्रदर्शनकारियों की मुक्ति गान बन गयी थी। शाब्बी ने इतनी कम उम्र में प्रकृति से लेकर देशभक्ति से संबंधित अनेक कविताएं लिखीं। रूमान से भरपूर ये कविताएं समूचे अरब में बहुत जल्दी ही लोगों के जुबान पर चढ़ गयीं। इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मिस्र के कवि मुस्तफा सादिक अल रफी द्वारा रचित कविता को जब ट्यूनीशिया की आजादी के बाद राष्ट्र-गान बनाया गया, तो उसके आखिर में दो पंक्तियां शाब्बी की भी जोड़ी गयीं…

जिस दिन लोग जीने की ठान लेते हैं, नियति भी उनका साथ देना पड़ता है
और उनकी रातें ढलने लगती हैं, और जंजीरें टूटकर बिखरने लगती हैं
वह जिसमें जीवन के लिए जिद्दी अनुराग नहीं, हवा में गुम हो जाता है
यही बताया है मुझे अस्तित्व ने, यही घोषणा है अदृष्ट आत्माओं की…


बौउजीजी द्वारा आग लगाने की घटना के ठीक महीने बाद 17 जनवरी 2011 को काहिरा में अबू अब्दुल मोनाम हमेदेह ने मिस्र की संसद के सामने रोटियों के कूपन न मिलने के कारण अपने शरीर में आग लगा ली। लीबिया में विद्रोह की शुरुआत में बेनगाजी स्थित गद्दाफी के सैन्य ठिकाने कतिबा के दरवाजे को अली मेहदी ने अपनी कार में पेट्रोल और घर में तैयार बारूदों से भर कर विस्फोट कर उड़ा दिया। देखते-देखते ट्यूनीशिया की आग अरब के कई देशों में लग गयी और लोग तानाशाहों के दमन का मुकाबला करने के लिए सड़कों पर आ गये। हर जगह शाब्बी की कविताएं गायी जा रही थीं। निजार कब्बानी पढ़े जा रहे थे। सीरिया के शासक के कहर ने कब्बानी को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। उनकी कविताओं में बिछुड़ा देश, लाचार लोग और एक नयी सुबह की उम्मीद लगातार उपस्थित हैं। इस क्रांति से बहुत पहले वह लिख रहे थे…

सब्ज ट्यूनीशिया, तुम तक आया हूं हबीब की तरह
अपने ललाट पर लिये इक गुलाब और इक किताब
क्योंकि मुझ दमिश्की का पेशा मुहब्बत है


शाब्बी की तरह कब्बानी भी पूरे अरब के कवि हो चुके थे और इसका बाकायदा एहसास कवि को था…

और दमिश्क देता है अरबियत को उसका रूप
और उसकी धरती पर जमाने लेते हैं आकार


जब इस क्रांति की लहर लीबिया पहुंची, तो एक आश्चर्यजनक दास्तान दुनिया के सामने आयी, जो जिंदगी की तमाम उम्मीदों को इस खौफनाक वक्त में एक बार फिर जिंदा कर जाती है। बयालीस सालों के क्रूर शासन में अमाजीर कबीलों को अपनी भाषा बोलने, लिखने और पढ़ने की अनुमति नहीं थी। कभी-कभार किसी ने अगर हुक्म मानने में कोताही की, तो उसे दंड का भागी होना होता था, जिसमें मौत की सजा भी शामिल थी। गद्दाफी के कहर से अमाजीर संस्कृति किसी अंधेरे कोने में छुप गयी थी। विद्रोह के शुरू में ही नफूसा पहाड़ियों के अमाजीर इलाकों ने गद्दाफी के खिलाफ अपने को दांव पर लगा दिया और कुछ ही हफ्तों में ये इलाके आजाद हो गये। गांव-कस्बों की दीवारों पर अमाजीर भाषा में नारे और कविताएं लिखे जाने लगे। इतना ही नहीं, लोगों ने रेडियो प्रसारण के साथ साहित्यिक किताबें भी छापनी शुरू कर दीं। यह सब इतना हैरान कर देने वाला है कि आखिर ऐसे भयानक दमन के बावजूद इतने सालों तक अमाजीरों ने अपनी भाषा और साहित्य को कैसे बचाकर रखा होगा! उम्मीद है कि आनेवाले दिनों में यह भाषा और समृद्ध होगी। लीबिया के नवगठित मंत्रिमंडल में एक अमाजीर युवती को संस्कृति मंत्रालय का जिम्मा सौंपा गया है।

अरब-क्रांति तानाशाही से मुक्ति का आंदोलन तो है ही, यह जर्जर और वृद्ध होते अरब के शासन और समाज के विरुद्ध युवाओं का विद्रोह भी है। तानाशाहों के सैनिकों, उनकी बंदूकों और भाड़े के लड़कों के सामने खड़े ये युवक किसी एक विचारधारा या संगठन के नहीं हैं। इसमें सभी शामिल हैं और उनका मूल नारा लोकतंत्र या सत्ता-परिवर्तन का नहीं, बल्कि आजादी का है – अल हुर्रेया – का है। निजार कब्बानी ने एक लंबी कविता अरब के बच्चों के लिए लिखी थी…

अरब के बच्चो,
भविष्य के मासूम कवच,
तुम्हें तोड़ना है हमारी जंजीरें,
मारना है हमारे मस्तिष्क में जमा अफीम को,
मारना है हमारे भ्रम को।

अरब के बच्चो,
हमारी दमघोंटू पीढ़ी के बारे में मत पढ़ो,
हम हताशा में कैद हैं।
हम तरबूजे की छाल की तरह बेकार हैं।

हमारे बारे में मत पढ़ो,
हमारा अनुसरण मत करो,
हमें स्वीकार मत करो,
हमारे विचारों को स्वीकार मत करो,
हम धूर्तों और चालबाजों के देश हैं।

अरब के बच्चो,
वसंत की फुहार,
भविष्य के मासूम कवच,
तुम वह पीढ़ी हो जो
हार को कामयाबी में बदलेगी…


सीरिया से निर्वासित कवयित्री आयशा आर्नोत कहती हैं कि चीखों के अक्षर नहीं होते। हर भाषा में ये एक जैसी होती हैं। उनकी अपील है कि दुनिया भर के रचनाकारों को अरब के लोगों का साथ देना चाहिए क्योंकि यह सिर्फ अरब का मसला नहीं है। यहां मानवता के साझा भविष्य की इबारत लिखी जा रही है। उनका कहना है कि चूंकि ऐसे आंदोलनों का वास्ता दुनिया-भर से होता है इसलिए समय की इस पुकार को सुन सबको दौड़ना होगा, चाहे हमारे विचार और हमारी मान्यताएं अलग-अलग हों। अरब से हिंदुस्तान का वास्ता बहुत पुराना है। लेकिन अफसोस की बात है कि हमारे लेखक, कवि और रचनाकार हमारे समय के सबसे बड़े घटना-क्रम पर खामोशी साधे हुए हैं। बीता साल फैज और नागार्जुन जैसे कवियों का जन्म-शताब्दी वर्ष था, जिन्होंने वियतनाम, फलस्तीन, अफ्रीका, बेरुत आदि के दर्द को अपना दर्द जाना। यह कैसे हो सकता है कि हमारा कवि सीदी बौउजिद के चौराहे पर जलते बौउजीजी से लेकर काहिरा की सड़कों पर बूटों तले रौंदी जा रही उस ब्लू ब्रा वाली लड़की तक अरब के बहादुर बच्चों की लंबी कतार के लिए एक कविता समर्पित न करे!

(प्रकाश कुमार रे। सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता के साथ ही पत्रकारिता और फिल्म निर्माण में सक्रिय। दूरदर्शन, यूएनआई और इंडिया टीवी में काम किया। फिलहाल जेएनयू से फिल्म पर रिसर्च। उनसे pkray11@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)


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