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Sunday, March 11, 2012

पान सिंह तोमर केवल एक फिल्म का नाम नहीं है

पान सिंह तोमर केवल एक फिल्म का नाम नहीं है


 ख़बर भी नज़र भीसिनेमा

पान सिंह तोमर केवल एक फिल्म का नाम नहीं है

10 MARCH 2012 ONE COMMENT

♦ शशि भूषण

पान सिंह तोमर को मेरा सैल्यूट। ऐसी फिल्में हर साल नहीं बनतीं और किसी अभिनेता के जीवन में भी दुबारा घटे, यह सपना ही कहा जाएगा। फिल्म समीक्षकों का कोपभाजन बनकर भी और कोई उंगली उठाता है, तो इसकी परवाह किये बिना इसे एक महान फिल्म कहा जाना चाहिए। इसलिए कि यह अन्याय को ईमानदारी, सादगी और करुणा से दिखाती है। देखने के बाद यह भूलती नहीं और कहने लायक कुछ छोड़ती नहीं। इस फिल्म को देखने के बाद अवाक् रह जाना दरअसल अन्याय का प्रतिकार न कर सकने की ग्लानि है।

पान सिंह तोमर के जीने, लड़ने और मरने को इरफान खान ने जिस तरह अभिनय से इस फिल्म में साकार किया है, केवल उनके पसीने का टीका बहुतों को अभिनेता बना सकता है। उनकी प्रतिभा को और चरित्र के भीतर प्रवेश को छू सकने वाला दूसरा अभिनेता नहीं हो सकता।

तिग्मांशु धूलिया ने फिल्म के रूप में एक बेहतरीन आईना, जो सामने आते ही तमाचा जड़ देता है, इस देश को सौंपा है। बुंदेली टोन वाले संवाद और प्यार-झगड़े तथा गंवई दृश्य ऐसे कि आप चीख उठें, यह फिल्म नहीं, ऐसा सचमुच होता है! मेरा यकीन है, इस फिल्म को देखने के बाद आप पान सिंह तोमर जैसा जीना चाहेंगे। उसके जैसा बोलना, चलना, अपनी मां, बीवी और बच्चों तथा खेतों को प्रेम करना चाहेंगे।

पान सिंह जब छुप कर छावनी में बेटे के सामने खड़ा होकर पूछता है, सुना है तुम्हारी शादी हो रही है। मेरी वजह से कोई दिक्कत तो नहीं है? जब आइसक्रीम लेकर फोन पर अफसर से कहता है, यह सबसे बड़ा मैडल है मेरे लिए। जब वह पत्नी से आखिरी बार मिलकर लौटता है, तो कलेजा मुंह को आता है।

यह महज डायलाग नहीं है, जो पान सिंह तोमर अपने कोच से कहता है, मुझे गाली देना पर मां की गाली कभी मत देना। मां को गाली देने पर गोली चल जाती है हमारे यहां। हम भी तो जीवन से इतना चाहते ही हैं कि हमारी मां को गाली देने वाला जिंदा न रहे हमारी आंखों के सामने। फिर खेत छीन लेने वाले और बूढ़ी मां को बंदूक के कुंदे से पीटने वाले को गोली मारकर चंबल के बीहड़ों में भटकता पान सिंह डाकू कैसे हुआ? पान सिंह न केवल बागी है बल्कि वह हमें सिखाता है कि बागी होना किसे कहते हैं। वह हमें धिक्कारता है हम बागी क्यों नहीं हैं?

हम डकैत नहीं बागी हैं। डकैत तो संसद में होते हैं। पान सिंह तोमर का पत्रकार को दिया यह बयान इस फिल्म की रीढ़ है। और यह फिल्म एक राजनीतिक फिल्म है। फिल्म का नाम राजनीति होने से वह सही राजनीतिक फिल्म नहीं बनती। जब तक अन्याय और उसके प्रतिरोध की सही और हिम्मतवर समझ न हो फिल्म यथार्थ बनकर रह जाती है। उससे कला और चेतना के पांव आगे नहीं बढ़ते। वह सीने में संकल्प शक्ति बनकर नहीं रहती।

फिल्म का मर्म वहां है, जहां पान सिंह तोमर को सेना में अधिक खाने की वजह से स्पोर्ट्स में भेज दिया जाता है। वह अधिक खाता है इसलिए खिलाड़ी बन जाता है। उसमें गुस्सा है। गलत की पहचान है पान सिंह को इसलिए उसकी शक्ति खर्च होनी चाहिए, वरना विद्रोह हो सकता है। इस कारण उसे निशानेबाजी से हटाकर धावक बनाया जाता है।

लेकिन एक दिन उसका कोच उससे कहता है, तुम पांच हजार मीटर की फाइनल दौड़ नहीं दौड़ोगे? क्यों? क्योंकि अफसर के बेटे से कोच की बेटी की शादी होने वाली है और यह दौड़ उसे ही जीतनी है। कोच पान सिंह तोमर को समझाता है, तुम पीछे हट जाओ मैं तुम्हें बाधा दौड़ का नेशनल चैंपियन बना दूंगा। पान सिंह तोमर मान जाता है। वह बाधा दौड़ का प्रशिक्षण लेता है और नेशनल चैंपियन बनता है। अपने इस कौशल और सामर्थ्य में केवल एक अंतर्राष्ट्रीय दौड़ वह हारता है, जिसमें उसे कंटीले जूते पहनने पड़ते हैं। वह अपने कोच से कहता है इन जूतों में तो मैंने कभी अभ्यास ही नहीं किया। मैं नंगे पैर दौड़ लूंगा। उसे इसकी अनुमति नहीं मिलती। वह दौड़ के बीच में ही जूते उतार कर नंगे पैर दौड़ता है, फिर भी हार जाता है।

अगर इस फिल्म की किसी फिल्म से तुलना की जा सकती है, तो वह है बैंडिट क्वीन। लेकिन मैं समझता हूं दलितों और स्त्रियों के प्रति अन्याय सहज ही हमारी संवेदना को जगा देता है। कोई भी पानीदार इंसान इस बात से विचलित हुए बिना नहीं रह पाता कि स्त्रीत्व का अपमान हो रहा है। लेकिन यदि यह अन्याय जमीन और अधिकारों के साथ हो रहा हो तो बैंडिट क्वीन जैसी संवेदना जगाने के लिए जिस कलात्मक सामर्थ्य की जरूरत पड़ती है, उसी का नाम है फिल्म पान सिंह तोमर। यहीं दोनों फिल्मों का एक साझा पाठ किया जा सकता है कि आत्मसमर्पण के बाद भी मारी जाने वाली स्त्री होती है और हर वह शख्स मारा ही जाता है, जो अन्याय से लड़ता है। पर बागी सूबेदार पान सिंह तोमर मरकर भी मरता नहीं हमारे दिल में, फिल्म इस कोटि की है।

इस फिल्म के और पहलुओं पर चर्चा हो सकती है, आगे होगी भी। बागी पान सिंह तोमर का यह सवाल पूरे भारतीय अतीत को निरुत्तर करने और शर्म से सर झुका लेने को मजबूर कर देने वाला है कि मुझसे खेल का मैदान क्यों छीन लिया? जीवन भर बीहड़ में भटकने को क्यों छोड़ दिया? मैं इस स्वीकार के साथ कि इस फिल्म का एक-एक मिनट कीमती है, एक सामयिक सवाल पूछना चाहता हूं, जिसका संबंध दर्शकों से है कि यह फिल्म मल्टी प्लेक्सेस में बड़े पैमाने पर क्यों नहीं दिखायी जा सकी? छोटे बजट की ऐसी फिल्मों को हर किस्म के दर्शकों तक पहुंचाने का जिम्मा किसका होना चाहिए? क्या दर्शक केवल सुंदर अभिनेत्रियों के मुजरे देखने के लिए बने हैं? क्या उनके शौक को बेलगाम छोड़ दिया गया है कि बालीवुड की स्त्रियां महज देह और इंटरटेनमेंट हो जाएं? ऐसे समर्थ दर्शकों की जिंदगी में किसी बागी की बीवी के आंसू क्यों नहीं पहुंचते?

shashibhushan image(शशिभूषण। कवि-कथाकार। आकाशवाणी रीवा में क़रीब चार साल तक आकस्मिक उदघोषक रहे। बाद में यूजीसी की रिसर्च फेलोशिप भी मिली। फ़िलहाल नागालैंड के दिमापुर जिले में हिंदी की अध्यापकी। gshashibhooshan@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)

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