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Sunday, March 11, 2012

विकास का चेहरा

विकास का चेहरा

Sunday, 11 March 2012 17:18

पवन कुमार गुप्त 
जनसत्ता 11 मार्च, 2012: चुनाव और क्रिकेट दोनों तमाशे फिलहाल खत्म हो गए हैं। पल-पल बढ़ते क्रिकेट के स्कोर और चुनावों के परिणामों से आने वाला मजा; उम्मीदवारों, खिलाड़ियों और दलों पर लगाई गई बाजियों और विश्लेषणों का दौर भी पूरा हुआ। चुनाव और क्रिकेट में कई समानताएं हैं। जैसे, सचिन कैसा भी खेलें, उन पर कोई उंगली उठाने की हिमाकत नहीं कर सकता। वैसे ही कांग्रेसी कुटुंब के युवराज और युवराज्ञी पर कोई कांग्रेसी नकारात्मक टिप्पणी नहीं कर सकता। हालांकि सचिन और कांग्रेसी युवराज में तुलना नहीं की जा सकती। सचिन ने अपने हुनर और मेहनत से वह स्थान हासिल किया है, पर युवराज को तो यह सब बिना काबिलियत साबित किए विरासत में मिल गया है। तुलना खौफ की हो रही है। कुटुंब की मुखिया का इतना खौफ है। युवराज और युवराज्ञी कभी गलत हो ही नहीं सकते, शिकस्त कितनी ही बुरी क्यों न हो। गलती हमेशा प्यादों की होती है और कांग्रेस में तो सब प्यादे ही हैं। अब तो मुखिया ने कहा है कि प्यादे भी कुछ ज्यादा हो गए हैं! 
भारत की जनता पर यह फिजूल इल्जाम लगाया जाता है कि वह धर्म और जाति के आधार पर अपने प्रतिनिधियों को चुनती है। हां, जब और कोई विकल्प नहीं होता, धर्म और जाति भी आधार बन जाते हैं। ध्यान से देखें तो इस चुनाव में जनता ने दोनों राष्ट्रीय दलों के मुंह पर तमाचा जड़ा है, सिर्फ कांग्रेस के मुंह पर नहीं, भले भाजपा कांग्रेस के हाल पर खीसें निपोरती रहे। लोग तंग आ गए थे, इसलिए वे इस चुनावी व्यवस्था की सीमाओं के तहत जो कर सकते थे, इस चुनाव में उन्होंने किया। वे समझते हैं कि सभी दल एक ही थैली के चट््टे-बट््टे हैं। तो विकल्प के तौर पर, जिन पर उनका बस थोड़ा ज्यादा चलने की संभावना है, उन्हीं को चुना है। केंद्र के युवराज के बजाय उन्हें अपने राज्य का युवराज ज्यादा नजदीक लगा तो उसे चुन लिया। हालांकि जनता को अब ज्यादा उम्मीद किसी से नहीं रही है। 
पर अब चुनाव खत्म हो गए हैं तो उनकी बात करते हैं, जो चुनाव में जीते हैं। वे भी विकास की बात करते हैं। 'विकास' की परिभाषा अभी तक स्पष्ट नहीं हुई है, और इसका आम आदमी और समाज को क्या फायदा पहुंचता है, यह भी स्पष्ट नहीं है। पर सब अपना-अपना अनुमान लगाते और भ्रम में जीते रहते हैं। प्रचलित विकास के संबंध में कुछ बातें साफ होनी चाहिए कि इसमें समाज की कोई जगह नहीं है, व्यक्ति विशेष की हो सकती है- ऐसे व्यक्ति की, जो आक्रामक हो, बढ़-चढ़ कर अपने को दर्शाने की जिसमें कला हो, जिसका 'होने' में कम, 'दिखाने' में ज्यादा यकीन हो। इस विकास में समाज मजबूत नहीं होता, कमजोर पड़ता है; बाजारवाद बढ़ता है, जो व्यक्तिगत लोभ, आकांक्षा और होड़ पर टिका होता है। इसमे चंद लोगों के लिए बेशुमार दौलत और बेईमानी करने की अपार संभावनाएं खुलती हैं। शेष लोगों के लिए घूस देकर, घिघिया कर, चापलूसी करके, 'सोर्स' भिड़ा कर, नौकरियां, थोड़ा-बहुत काम और छोटे-मोटे ठेके वगैरह जरूर मिल जाते हैं। जिस समाज के लोग, कम में ही सही, मालिक हुआ करते थे, वे नौकर बन जाते हैं। और नौकरी की सीरत है कि परिवार को तोड़ कर व्यक्ति को संकुचित बना देती है। 
मुश्किल यह भी है कि भारतीय स्वभाव मालिकाना है। नौकरी में जिस प्रकार के अनुशासन और हुक्म अदायगी की जरूरत होती है, वह उससे मेल नहीं बैठा पाता। इसलिए अंग्रेजों के जमाने से ही विकास के हिमायती, लोगों को एक खास तरह से पढ़ा-लिखा कर इस स्वतंत्र भारतीय स्वभाव को पालतू (नौकर) बनाने पर तुले हैं। भारत में जो जितना ज्यादा पढ़ा-लिखा है वह उतना ही जी-हुजूरी करने में माहिर हो जाता है। वह सत्ता और पैसे में जिसको अपने से ज्यादा आंकता है, उसके सामने घिघयाने लगता है और जिसे अपने से नीचे मानता है, उस पर गुर्राता है। वह अपने ही समाज को तिरस्कार की नजर से देखने लगता है और उससे अपने को काट लेता है। वह 'सभ्य' बन जाता है। यह तथाकथित सभ्य आदमी आत्म-संकुचित, व्यक्तिवादी, भयभीत और बिना सवाल किए हुक्म का गुलाम और तिकड़मबाज होता है। 

हमारी नौकरशाही या अफसरशाही, जो अंग्रेजों द्वारा समाज को तोड़ने और उन पर हुकूमत करने के लिए बनाई गई थी, इसका चमकता उदाहरण है। इस 'सभ्य' व्यक्ति को अपने इतिहास का कोई भान नहीं होता और जो कुछ यह इतिहास के नाम पर अपने और अपने समाज के बारे में धारणा बनाए होता है, उससे इसे शक्ति नहीं मिलती, बल्कि शर्म आती है। यह व्यक्ति दिखावा करके अपने को ऊंचा साबित करना चाहता है और इस प्रकार समाज के पढ़े-लिखे युवाओं को भी अपनी नकल करने को प्रेरित करता है। यह भोंडापन आज मुंबई से लेकर मुलायम सिंह के सैफई तक देखा जा सकता है। 
व्यक्तिवादी व्यक्ति अहंकारी, चालाक, खुदगर्ज, आक्रामक, भेड़चाल चलने वाला, स्वार्थवश हुक्म बजाने वाला और हीन भावना से ग्रस्त, संकुचित सोच वाला होता है। आधुनिक विकास की अवधारणा ऐसे ही व्यक्ति को प्रोत्साहित करती है। यह व्यक्ति कानून और संविधान में तो आस्था रख सकता है, पर समाज की समझ इसे नहीं होती। इस व्यक्ति को शायद राष्ट्रभक्ति की समझ हो सकती है, देशभक्ति इसे समझ नहीं आ सकती। जो समाज से कटा  हुआ हो, देशभक्ति उसके पल्ले नहीं पड़ती। 
मौजूदा विकास विविधता को खत्म करके एकरूपता को पोषित करता है। एकरूपता में शोषण और शासन दोनों आसान होता है। विविधता खत्म होते ही समाज कमजोर पड़ते हैं। कमजोर और   टूटे हुए समाज का शोषण और उस पर शासन करना आसान हो जाता है। 
व्यक्ति को सहज और शालीन बनाने का काम सशक्त और समृद्ध समाज ही कर सकता है। सशक्त और समृद्ध समाज स्वावलंबी, स्वायत्त और सौंदर्य दृष्टि से परिपूर्ण होता है। ऐसे समाज में दिखावा, प्रतिस्पर्धा, अश्लीलता, भोंडापन, चालाकी, आक्रामकता नहीं, बल्कि सहजता, परस्परता, विवेक, वीरता, धैर्य, ठाठ और सौंदर्य पनपते हैं। 
यह बात हमें ध्यान में रखनी चाहिए कि 1750 तक दुनिया के कुल उत्पादन में भारत का हिस्सा करीब एक चौथाई होता था और वह भी गैर-कृषि उत्पाद में। कृषि उत्पाद को मिला लिया जाए तो यह प्रतिशत और ज्यादा बढ़ेगा। यह उत्पादन विभिन्न जातियों और कारीगर समाज द्वारा होता था, न कि आधुनिक औद्योगिक पद्धतियों से। ढाई-तीन सौ सालों में, जिस दौरान अंग्रेजी राज ने जमींदारी प्रथा को बढ़ावा दिया, हमारी सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त और कमजोर पड़ने लगी। कमजोर समाज में विकृतियां स्वाभाविक रूप से पैदा होती हैं। पहले जमींदारी प्रथा और फिर उद्योगीकरण ने पूरे समाज को झकझोर कर रख दिया। स्थानीय व्यवस्थाएं ढहने लगीं। 
अगर उस इतिहास को अलग करके भारत का ठीक से अध्ययन किया जाए तो शायद अहसास होगा कि हमारा समाज कुछ अलग तरह का रहा है। हमारे इतिहासकार इस जमींदारी काल के इतिहास से जोड़ कर उससे पहले के भारत की तस्वीर बनाते हैं, जिसमें उन्हें विकृतियां ही दिखाई पड़ती हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वालों को इस तरफ भी ध्यान देना होगा। विकास के भ्रामक सपनों से जनसाधारण को मुक्त करना होगा और उन्हें इस पर भी काम करना पड़ेगा कि समाज कैसे सशक्त और समृद्ध हो, व्यक्ति कैसे संपन्न हो। जन साधारण की शिक्षा और उसमें फिर से जान फंूकने के काम भी करने पड़ेंगे, जिससे उसकी टूटी-फूटी आत्म-छवि सुधरे और आत्म-विश्वास लौटे। विकास नहीं, हमें समृद्धि, संपन्नता और स्वावलंबन का सपना देखना होगा।

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