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राष्‍ट्रविरोधी की परिभाषा ही भ्रष्‍ट हो चुकी है : अरुंधती

राष्‍ट्रविरोधी की परिभाषा ही भ्रष्‍ट हो चुकी है : अरुंधती


नज़रियाबात मुलाक़ात

राष्‍ट्रविरोधी की परिभाषा ही भ्रष्‍ट हो चुकी है : अरुंधती

1 JANUARY 2011 9 COMMENTS

विनायक सेन की गिरफ्तारी के बाद अरुंधती राय से यह इंटरव्‍यू सीएनएन आईबीएन की पत्रकार रूपाश्री नंदा ने लिया। इस इंटरव्‍यू में अरुंधती बता रही हैं कि कैसे सरकार जनता के प्रतिरोध की भाषा को राज्‍य के खिलाफ बगावत समझ रही है और कैसे बड़ी राष्‍ट्रविरोधी हरकतों के सामने जिंदगी की बुनियादी जरूरतों के लिए लड़ाई को ज्‍यादा खतरनाक समझा जा रहा है : मॉडरेटर

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रूपाश्री नंदा : उस समय आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या थी, जब आपने यह सुना कि विनायक सेन एवं दो अन्य लोगों को राजद्रोह के मामले में उम्रकैद की सजा सुनायी गयी है?

अरुंधती राय : मैं इस बात की उम्मीद तो नहीं ही कर रही थी कि फैसला न्यायपूर्ण होगा, लेकिन ऐसा लगा कि अदालत में जो साक्ष्य प्रस्तुत किये गये और जो फैसला आया, उनका आपस में कोई संबंध नहीं जुड़ता। मेरी प्रतिक्रिया यह थी कि यह एक प्रकार से घोषणा थी… यह कोई फैसला नहीं था। यह एक प्रकार से उनके आशय की घोषणा थी, यह एक संदेश था, दूसरों के लिए चेतावनी थी। इसलिए यह दो प्रकार से काम करता है। चेतावनी पर ध्यान दिया जाएगा। मुझे लगता है कि जिन लोगों ने फैसला सुनाया है, उनको इस बात का अंदाजा नहीं रहा होगा कि लोगों की प्रतिक्रिया इतनी एकजुट और प्रचंड होगी, जैसी कि यह अभी है।

रूपाश्री नंदा : आपको न्यायपूर्ण फैसले की उम्मीद क्यों नहीं थी?

अरुंधती राय : इस केस पर हमारी नजर पिछले कुछ सालों से थी। जिस तरह से इसका ट्रायल चल रहा था, उसको लेकर खबरें आती रहती थीं। साक्ष्य यह है कि कुछ तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा गया। जो साक्ष्य थे भी, वे इतने कमजोर थे… यहां तक कि नारायण सेन, जिसको केंद्र में रखकर राजद्रोह का सारा मामला तैयार किया गया, भी उस समय तक राजद्रोह के मामले में अभियुक्त नहीं थे, जब विनायक सेन को गिरफ्तार किया गया था। इसलिए यह लगता है कि इसके पीछे पूर्वाग्रह की भावना काम कर रही है, जो प्रजातंत्र के लिए चिंताजनक है। अदालतों को, मीडिया को भीड़तंत्र के हवाले कर दिया गया है।

रूपाश्री नंदा : क्या आपको लगता है कि राज्य कभी जनतांत्रिक अधिकारों की सुरक्षा एवं आतंकवाद से रक्षा के बीच की झीनी सी रेखा पर कभी चल सकता है? इसकी उम्मीद की जा सकती है?

अरुंधती राय : आतंक की परिभाषा में भी झोल है। हम इसको लेकर बहस कर सकते हैं, लेकिन इस तरह के कानून हमेशा से मौजूद रहे हैं, चाहे वह टाडा रहा हो या पोटा रहा हो। अगर हम इतिहास को देखें तो जितने लोगों को सजा सुनायी गयी, उनमें कितने अभियुक्त थे… शायद एक प्रतिशत या 0.1 प्रतिशत। क्योंकि जो लोग सचमुच गैर-कानूनी हैं, चाहे वे विद्रोही हों या आतंकवादी, उनकी कानून में कोई खास रुचि नहीं होती है। इसलिए इन कानूनों का हमेशा उन लोगों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता रहा है, जो आतंकवादी नहीं होते तथा किसी न किसी रूप में गैरकानूनी भी नहीं होते हैं। यही बात विनायक सेन के संदर्भ में भी है। असल मुद्दा यह है, अगर आप माओवादियों की बात करते हैं, जो कि एक प्रतिबंधित संगठन है… तो उनको क्यों प्रतिबंधित किया गया है? क्योंकि वे हिंसा में विश्वास करते हैं – लेकिन आज के समाचारपत्र में यह लिखा हुआ है कि समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाके के पीछे हिंदुत्ववादी ताकतें काम कर रही थीं। यहां तक कि मुख्यधारा के दल भी जघन्य किस्म की हिंसा से जुड़े रहे हैं। यहां तक कि नरसंहार तक के, लेकिन उनको कभी प्रतिबंधित नहीं किया गया। इसलिए किसको आप प्रतिबंधित करने के लिए चुनते हैं, किसको प्रतिबंधित नहीं करने के लिए चुनते हैं – ये सभी राजनीतिक फैसले होते हैं। लेकिन आज हालात यह है कि सरकार एवं आर्थिक नीतियां खुलकर असंवैधानिक रूप से काम कर रही हैं। वे हैं जो PESA (panchayat extension schedule area act) के खिलाफ काम कर रही हैं। उनकी आर्थिक नीतियों के कारण विस्थापन बढ़ रहा है। 80 करोड़ लोग 20 रुपये से भी कम में गुजारा कर रहे हैं, साल में 17 हजार किसान आत्महत्या कर रहे हैं…

रूपाश्री नंदा : लेकिन यह हिंसा को जस्टिफाई नहीं करता है। सीएनएन-आईबीएन के सर्वेक्षण में यह बात सामने आयी कि बहुसंख्यक लोग माओवादियों के मुद्दों से सहानुभूति तो रखते हैं लेकिन वे उनके तौर-तरीकों से इत्तेफाक नहीं रखते हैं। हां, यह बात सच है कि मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां भी हिंसा करती हैं, लेकिन वे यह नहीं कहतीं कि यह उनका घोषणापत्र है। दोनों में यह फर्क है?

अरुंधती राय : हां, मैं मानती हूं कि यह एक महत्वपूर्ण अंतर है। माओवादियों की पद्धतियों पर निश्चित तौर पर कोई प्रश्न उठा सकता है। लेकिन मैं कहना यह चाह रही हूं कि ये कानून इस तरह के हैं कि किसी भी व्यक्ति को अपराधी बनाया जा सकता है। यह केवल माओवादियों के लिए ही नहीं है, उनके लिए भी है जो माओवादी नहीं हैं। यह जनतांत्रिक गतिविधियों को आपराधिक ठहराता है और अधिक से अधिक लोगों को कानून के दायरे से बाहर लाता है। इसलिए अंततः यह प्रति-उत्पादक है। अगर आप हिंसात्मक गतिविधियों में शामिल होते हैं, तो आपको कई सामान्य प्रकार के कानूनों का सामना करना पड़ता है। इसलिए इस तरह के कानून के होने से, जिसमें राज्य के प्रति प्रतिरोध को अपराध माना जाए, हम सब अपराधी हुए।

रूपाश्री नंदा : तो सुरक्षा का उपयुक्त उपाय क्या होना चाहिए?

अरुंधती राय : देखिए। आपको यह समझना होगा कि यह सब इस बात से उपजता है कि राज्य की संस्थाओं में लोगों का विश्वास कम होता जाता है। लोग यह मानने लगे हैं कि प्रजातांत्रिक संस्थाओं में उनके लिए न्याय की कोई उम्मीद नहीं है। इसलिए इसका कोई समाधान तुरत-फुरत में नहीं किया जा सकता है। आपको लोगों में यह विश्वास जगाना होगा कि आप उनके प्रतिरोध को समझते हैं और उसको दूर करने के लिए उपाय करना चाहते हैं। नहीं तो ऐसी स्थिति आती जाएगी, जिसमें माहौल हिंसात्मक होता जाएगा… पुलिस या सेना के राज्य से किसी का भला नहीं होने वाला है। क्योंकि 80 करोड़ लोगों को कंगाल बनाकर आप सुरक्षित रहने की उम्मीद नहीं कर सकते। ऐसा नहीं होनेवाला। अधिक से अधिक लोगों पर राजद्रोह का आरोप लगाया जा रहा है, उनको सजा दी जा रही है। आप एक ऐसी अवस्था का निर्माण कर रहे हैं जिसमें राष्ट्रविरोधी की परिभाषा यह हो जाती है कि जो अधिक से अधिक लोगों की भलाई के लिए काम कर रहा है, यह अपने आप में विरोधाभासी और भ्रष्ट है। विनायक सेन जैसा आदमी जो सबसे गरीब लोगों के बीच काम करता है अपराधी हो जाता है, लेकिन न्यायपालिका, मीडिया तथा अन्यों की मदद से जनता के एक लाख 75 हजार करोड़ रुपये का घोटाला करने वालों का कुछ नहीं होता। वे अपने फार्म हाउसों में, अपने बीएमडब्ल्यू के साथ जी रहे हैं। इसलिए राष्ट्रविरोधी की परिभाषा ही अपने आप में भ्रष्ट हो चुकी है… जो कोई भी न्याय की बात कर रहा है, उसको माओवादी घोषित कर दिया जाता है। यह कौन तय करता है कि राष्ट्र के लिए क्या अच्छा है।

रूपाश्री नंदा : दिल्ली में आपके खिलाफ भी एफआईआर दर्ज हुआ है… क्या आपको यह लगता है कि आपके ऊपर भी राजद्रोह का मुकदमा बनाया जा सकता है?

अरुंधती राय : अभी तो यह सब कुछ कुछ लोगों द्वारा निजी तौर पर किया जा रहा है। जिस व्यक्ति ने मुकदमा दायर किया है, वह अनाधिकारिक तौर पर भाजपा का प्रचार मैनेजर है। राज्य द्वारा यह नहीं किया जा रहा है और मैं इस पर कोई अति-प्रतिक्रिया व्यक्त कर अपने आपको शहीद नहीं घोषित करना चाहती। विनायक और सैकड़ों अन्य लोग जो जेल में हैं, सजा की प्रक्रिया में हैं… उनकी जिंदगियां तबाह कर दी गयीं। अगर वे जमानत पर छूट भी जाएं तो भी वे अदालत की फीस चुकाने में कंगाल हो जाएंगे। उनको अपनी प्रैक्टिस छोड़नी पड़ी। जो बहुत बड़ा काम वे कर रहे थे, उसे छोडना पड़ा। यह एक तरह से आपको चुप कराने की प्रक्रिया है, जो चिंताजनक है।

रूपाश्री नंदा : क्या आपने इतने बुरे हालात कभी देखे हैं… लोग इस बात को लेकर डरे रहते हैं कि वे किससे बातें कर रहे हैं, किससे मिल रहे हैं?

अरुंधती राय : देखिए, कश्मीर और मणिपुर जैसे राज्यों में यह सब बरसों से चल रहा है… लेकिन अब वह राजधानी की फिजाओं में घुसता जा रहा है, आपके ड्राइंग रूम में घुस रहा है, जो चिंता का कारण है – लेकिन बस्तर में तो यह बरसों से हो रहा है।

रूपाश्री नंदा : आज हम जिस तरह के वातावरण में रह रहे हैं, एक लेखक के तौर पर उसे आप किस तरह देखती हैं?

अरुंधती राय : मेरा कहना यह है कि इस तरह की नीतियां हम खुद को बिना पुलिस या सैनिक राज्य में बदले लागू नहीं कर सकते। हमने सुना कि राडिया टेप या 2जी घोटाला उजागर हुआ। लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के निजीकरण का मामला भी उतना ही बड़ा है, उतना ही मानवीय पहलू है। यह मनमाने ढंग से हो रहा है। एक राष्ट्र के रूप में हम संकट में हैं। हम उन लोगों की जुबान बंद करना चाह रहे हैं, जो इनके प्रति चिंता व्यक्त कर रहे हैं, इनके खतरों से आगाह कर रहे हैं, वे ऐसे लोग नहीं हैं जो अपने देश से नफरत करते हों। अगर आप पीछे जाकर उनके लिखे को पढ़ें, उनके कहे को सुनें तो पाएंगे कि उन्होंने इस अवस्था की भविष्यवाणी बहुत पहले कर दी थी। ये वे लोग हैं, जिनको सुने जाने की जरूरत है, न कि उनको जेल भेजा जाए, आजीवन कारावास की सजा सुनायी जाए या मार दिया जाए।

जानकी पुल वाया ibnlive.in.com से साभार

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