मैं सफीना हुसैन हूं! मुझे सुनिए, क्योंकि मैं टीम बालिका हूं!!
♦ सफीना हुसैन
राजस्थान में पाली और सीहोर के सैकड़ों गांव आज इस मायने में बदले हुए हैं कि वहां अशिक्षा का अंधेरा छंट रहा है। बचपन में ब्याह दी गयी बच्चियां आज स्कूल जाने की जिद कर रही हैं और इस जिद के पीछे खड़ी है टीम बालिका। टीम बालिका के बारे में सफीना हुसैन ने आज से दस साल पहले सोचा और तस्वीर बदल दी। उन्होंने हाल ही में मुंबई में टेड के मंच पर अपनी बात रखी। हम उसका वीडियो और हिंदी अनुवाद यहां प्रस्तुत कर रहे हैं: मॉडरेटर
नगीना बानो तब एकदम बच्ची थी, जब उसके माता-पिता ने उसकी शादी कर दी। वह पाली जिले के चनोद गांव में रहती है। उसके ससुराल वाले उसे खूब सताते और उसके साथ बुरा बर्ताव करते थे। बच्चा होने के बाद उन लोगों ने नगीना को घर से निकाल दिया। वह बिलकुल अकेली और असहाय हो गयी। यह सब याद करते हुए वह कहती है, उस वक्त मेरे पास कुछ भी नहीं था। और यदि कोई चीज थी, जिसे मैं अपना कह सकती थी, तो वह थी बचपन में हासिल की गयी थोड़ी-सी शिक्षा। इसी शिक्षा के सहारे मैंने गांव में एक छोटा काम ढूंढ़ लिया और अपने पैरों पर खड़े होने में कामयाब हुई। अपने नन्हें बच्चे का ख्याल भी रखने लगी।
आज मेरे जीवन का बस एक ही ध्येय है – कि जो कुछ मेरे साथ हुआ वह गांव की मेरी किसी और बहन के साथ न हो।
आज नगीना बानो लड़कियों की शिक्षा की सबसे बड़ी चैंपियन है और स्कूलों को लड़कियों के लिए सुलभ बनाने के लिए प्रतिबद्ध। वह टीम बालिका है।
नगीना को पीड़ित बालिका वधू से आज की सशक्त नगीना बनाने में जिसने मदद की, वह थी शिक्षा। इसी ने एक व्यक्ति के रूप में उसे अपने भीतर छुपी हुई क्षमता को पहचानने में मदद की। यह शिक्षा वो है, जिसे न तो कोई हरा सकता है, और न ही कोई चुरा सकता है। बाढ़, अकाल या और कोई भी ताकत इसे छीन नहीं सकती। यह अब उसकी अमानत है, जिसका इस्तेमाल वह अपनी सारी जिंदगी करेगी। यह उसे सशक्त करेगी, उसकी आवाज बनेगी और आजादी भी देगी।
वह अपना जीवन बदलने में कामयाब रही, मगर हम जानते हैं कि उसका उदाहरण मात्र एक अपवाद है, मानदंड नहीं। भारत में 100 में से कोई 1 लड़की ही 12वीं तक पहुंच पाती है! इसका तात्पर्य ये हुआ कि इस देश में हम सभी इस मायने में अपवाद हैं। हम उन 1 फीसदी लड़कियों में से हैं!
- 40% लड़कियां 5वीं कक्षा तक पहुंचने से पहले ही स्कूल छोड़ देती हैं।
- और केवल 15% बच्चे प्राइमरी स्कूल में हिंदी की सामान्य कहानी पढ़ सकते हैं।
…
हमारे सरकारी स्कूल, जहां अधिकांश बच्चे पढ़ने जाते हैं, काफी समय से असफल साबित हो रहे हैं! हमारे ग्रामीण इलाकों में पब्लिक स्कूलों में जाने वाले लाखों बच्चों, खासकर लड़कियों को दी जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता में बड़ी समस्या पेश आ रही है।
हमारे देश में ग्रामीण या आदिवासी क्षेत्र के स्कूल कैसे दिखते हैं? मैंने हाल ही में राजस्थान के दूरदराज के गांवों के उन दो स्कूलों का दौरा किया, जहां मैं काम करती थी।
- हमारा अगला दौरा उस स्कूल में हुआ, जहां प्रधान अध्यापिका एक महिला थी और एक पुरुष शिक्षक थे। वहां करीब 40 बच्चे थे। हमने स्कूल के बारे में बात की और स्कूल के रिकार्ड भी देखे। पेपर पर किये गये सारे काम सौ फीसदी सही थे! रिकार्ड के मुताबिक गांव के लगभग सारे बच्चे स्कूल में उपस्थित थे और जिनके बारे में ये दिखलाया गया था कि वे बाहर हैं उनका पेपरवर्क अभिभावकों की ओर से पत्र और शपथ-पत्र के रूप में संलग्न किया गया था। उनकी फाइलों के सामने तो मेरी अपनी फाइल फटेहाल और बेतरतीब लग रही थी।
- फिर हमने बच्चों से मिलने की इच्छा जतायी। हमें बताया गया कि वे परीक्षा दे रहे हैं और इस समय उन्हें परेशान नहीं किया जा सकता। हमने इंतजार करने का फैसला लिया। इसी बीच हम चौथी कक्षा तक पहुंचने में कामयाब रहे और हमने वहां के बच्चों के साथ खेल-खेल में उनके बारे में जानने की कोशिश की। थोड़ा समय बीतने पर मैंने उनसे अपनी किताब निकालने को कहा तो उन्होंने बताया कि उनके पास कोई किताब नहीं है। अचंभित होते हुए मैंने उनसे उनकी नोटबुक मांगी, जो उनके पास थी। उस नोटबुक में लगातार कई पन्ने पढ़ी न जा सकने वाली लिखावट से भरी पड़ी थी। मैंने एक बच्चे से कहा कि वह अपनी नोटबुक में से कुछ पढ़ कर सुनाये। वह बच्चा आश्चर्य से मेरा मुंह ताकने लगा। उन्होंने जो खुद लिखा था, उसे वे पढ़ नहीं पा रहे थे। फिर मैंने ब्लैकबोर्ड पर कुछ सरल शब्द लिखे। बच्चे वे शब्द भी नहीं पढ़ पाये। जब उनसे पूछा गया कि उनके नोटबुक में जो लिखा है, वह उन्होंने कहां से लिखा। तब बच्चों ने एक 'गाइड' दिखायी। बच्चों के पास कोई पाठ्य-पुस्तिका नहीं थी। बच्चे एक गाइड से बिना कुछ समझे या यहां तक कि जिसे वे बाद में खुद पढ़ भी नहीं सकते, सब कुछ अपनी नोटबुक में उतार लेते थे।
- फिर हमने शिक्षक से कहा कि क्या हम वह 'परीक्षा' देख सकते हैं, जिसे उन्होंने अभी-अभी लिखा था। हमने देखा कि वे टेस्ट पेपर भी पूरी तरह लिखे हुए थे। मैंने बच्चों से पूछा – तुमलोगों ने इसे कैसे लिखा? उन्होंने तनिक मुस्कुराते हुए बताया – हमने बोर्ड से नकल कर के लिखा है।
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मौजूदा हालात पूरी तरह निराशाजनक है! मगर सवाल यह है कि हमारे पब्लिक स्कूल इतने असफल क्यों साबित हो रहे हैं? क्या ऐसा पैसों की कमी के कारण है?
वर्तमान में, सरकार हर बच्चे पर करीब 75000 रुपये खर्च कर रही है।
शिक्षा के क्षेत्र में निवेश की समस्या उतनी नहीं है, जितनी उस निवेश पर मिलने वाले लाभ की है। किसी ग्रामीण स्कूल पर 6 से 10 लाख रुपये खर्च करने के बाद आप क्या पाते हैं?
500 स्कूलों पर किये गये एक अध्ययन में हमने पाया कि सरकार हर साल 50 करोड़ रुपये की रकम खर्च करती है, और बदले में हमे क्या मिलता है :
9% बच्चे स्कूल छोड़ कर चले गये हैं।
23% बच्चे कक्षा से अनुपस्थित हैं।
केवल 15% बच्चे एक साधारण सी कहानी पढ़ने में सक्षम हैं।
तो हालात ये है कि आप इतने पैसे खर्च करते हैं और बदले में पाते हैं कि 15% बच्चों ने हिंदी की सामान्य कहानी पढ़ना सीख लिया है। यह केवल मेरी राय नहीं है बल्कि इस बात की पुष्टि 'प्रथम' द्वारा हर साल लायी जाने वाली रिपोर्ट ने भी की है। कुछ इलाके दूसरों के मुकाबले बदतर हैं, मगर सभी एक ही तरह से खराब हैं।
तो इस समस्या से कोई कैसे निपटे और इन स्कूलों में बदलाव किस तरह लाये?
इस बदलाव को जमीनी स्तर पर कारगर बनाने में सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है 'स्वामित्व'।
ये सभी स्कूल असफल साबित हो रहे हैं क्योंकि उनका कोई मालिक नहीं है! एक प्राइवेट स्कूल क्यों सफल होता है? क्योंकि अभिभावक पैसा देते हैं और वे परिणाम देखना चाहते हैं, क्योंकि वहां एक संचालक मंडल हाता है, निदेशक बोर्ड के ट्रस्टी होते हैं। स्वामित्व या शासन और जवाबदेही के कई स्तर होते हैं। वहीं दूसरी ओर पब्लिक स्कूलों में शिक्षकों को केंद्रीय स्तर पर बुलाया जाता है और गांवों में उनका स्थानांतरण कर दिया जाता है। माता-पिता अनपढ़ होते हैं और वे कोई भी राय जाहिर करने में असमर्थ होते हैं.
तो आप स्वामित्व का हस्तांतरण माता-पिता और समुदाय तक कैसे करेंगे और जरूरी बदलाव कैसे लायेंगे?
सबसे पहले माता-पिता को सशक्त करके, हम अभिभावक मंडल को प्रशिक्षित करते हैं और उन्हें ये सिखलाते हैं कि स्कूल का मूल्यांकन और इसकी समीक्षा कैसे करनी है। ऐसा शैक्षिक कार्य में सहायक सामान्य सामग्री की सहायता से किया जाता है, जो माता-पिता को यह निर्णय लेने में मदद करता है कि 'कौन सा स्कूल अच्छा है?' और 'कौन सा स्कूल अच्छा नहीं है?' इस तरह का मूल्यांकन करना जब वे एक बार सीख जाते हैं, तो वे स्कूल के विकास के लिए बनायी गयी योजनाओं को बनाने और पूरा करने में सक्षम हो जाते हैं। इस तरह वे वास्तव में, अच्छे स्कूल की पहचान करना और अपने स्कूल का कैसे विकास किया जाए और उसे कैसे बेहतर बनाया जाए, सीख जाते हैं।
यह तरीका काफी कारगर साबित हुआ। माता-पिता को जब स्कूल से संबंधित अधिकार दिये गये और उन्हें प्रभारी बनाया गया, तब स्कूल का शासन और प्रशासन नामांकन और बुनियादी ढांचे में पर्याप्त सुधार लाने में कामयाब रहा।
यह तरीका अपनाने के बाद 500 स्कूलों में हमने पाया :
- लड़कियों के लिए अलग से शौचालय की सुविधा वाले स्कूल 44% से बढ़कर 71% हो गये।
- पीने के पानी की सुविधा वाले स्कूल 46% से बढ़कर 82% हो गये।
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सब कुछ इतना अच्छा! मगर एक बहुत बड़ी रुकावट अभी बाकी थी – सीखने के मामले में! आज सरकारी स्कूलों में पढ़ने के लिए आने वाले अधिकांश बच्चे एससी/एसटी और बीपीएल परिवारों से आते हैं। लगभग सारे बच्चे पहली पीढ़ी के नौसिखिये होते हैं।
उनके माता-पिता इस ओर ध्यान दे सकते हैं कि एक शौचालय जरूरी है और इसमें सुधार की जरूरत है मगर अशिक्षित होने के कारण वे कक्षा के भीतर की बातचीत या क्रियाकलापों को प्रभावित नहीं कर पाते।
इस तरह के संघर्ष का सामना सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाली लगभग सभी इकाइयों को करना पड़ता है। अशिक्षा से जूझने के लिए आप उस माता-पिता को कैसे सशक्त करेंगे, जो पढ़-लिख भी नहीं सकते।
पिछले साल हमने 'टीम बालिका' नाम की अवधारणा को जांचा-परखा। इनमें गांव के वैसे लोग शामिल थे, जो 10वीं, 12वीं या विश्वविद्यालय तक की पढ़ाई कर चुके थे।
- 'लड़कियों को शिक्षा' के अभियान के प्रति समर्पित लोग
- बदलाव के हिमायती और उत्प्रेरक (सक्रिय कारक)
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हमने 'टीम बालिका' को 'गतिविधि आधारित शिक्षण' और मूल रूप से मनोरंजन और खेल के जरिये प्रशिक्षित किया। जब बच्चों के साथ इन्होंने काम किया, तो उनकी बुनियादी साक्षरता और गणितीय समझ काफी बढ़ी। हमने सरकारी स्कूलों में और माता-पिता के साथ काम करने के लिए 140 टीम बालिका सदस्यों को प्रशिक्षित किया।
कुछ टीम बालिका सदस्यों की कहानियां
कक्षाओं के मामले में देखिए टीम बालिका ने कैसे बदलाव लाये
केवल तीन महीनों में आये बदलाव!
- इंगलिश रीडिंग 9% से 29%
- बेसिक मैथ 11% से 29%
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इन सबका क्या मतलब है? इसका मतलब ये हुआ कि टीम बालिका और माता-पिता के बीच स्कूल का असली 'सामुदायिक स्वामित्व' उपस्थित था। इन्होंने 'समान' सरकारी निवेश पर एक साथ नामांकन संख्या, उपस्थिति, बुनियादी संरचना और शिक्षण परिणाम को बढ़ाया, जिसके परिणामस्वरूप स्कूल में वापसी की दर में बढ़ोत्तरी हुई।
इस प्रकार सरकार अभी भी पहले जितनी ही राशि खर्च कर रही है, मगर अब ज्यादा बच्चियां स्कूल पहुंच रही हैं क्योंकि स्कूल में नामांकन की संख्या अधिक हो गयी है और अब करीब दोगुनी संख्या में बच्चे पढ़ पा रहे हैं। इन सबके पीछे हर बच्चे पर सौ रुपये का अतिरिक्त निवेश प्रति वर्ष किया गया। इससे न सिर्फ 'सामुदायिक स्वामित्व' का सृजन हुआ बल्कि थोड़े अतिरिक्त निवेश से सरकार द्वारा उठाये जा रहे प्रति वर्ष प्रति बच्चे पर 7500 रुपये की राशि के निवेश की क्षमता काफी हद तक बढ़ गयी।
इसके अतिरिक्त चूंकि सारी कोशिशें टीम बालिका और माता-पिता द्वारा खुद की गयीं – सबके प्रयासों ने इसे टिकाऊ बना दिया।
अत: इस साल हम इस विचार को 3000 स्कूलों तक फैला रहे हैं। इस साल हमें आशा है कि हम टीम बालिका सदस्यों की संख्या 1000 से ज्यादा बढ़ा सकेंगे, जो स्कूलों और माता-पिता की मदद कर एक बार फिर से और सबके लिए निरक्षरता के इस दुष्चक्र को तोड़ने में हमारी मदद करेंगे। मतलब अब हमारे साथ 1,000 नगीना बानो होंगी, जो अपने गांव में शिक्षा को हासिल करने के लिए लड़कियों को समर्थन देने का काम करेंगी।
यह वह लड़ाई है, जिसे हमें जीत सकते हैं और हमें जरूर जीतना होगा, अगर 'इंडिया शाइनिंग' को सच्चे अर्थों में हम हासिल करना चाहते हैं।
टीम बालिका लड़कियों के लिए चैंपियन है। मैं सफीना हुसैन हूं और मैं टीम बालिका हूं।
शुक्रिया।
(सफीना हुसैन। सामाजिक कार्यकर्ता। 2002 से भारत में बालक शिक्षा के विस्तार के लिए प्रतिबद्ध। उन्होंने दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और एशिया के ग्रामीण और शहरी इलाकों में वंचित समुदायों के लिए काफी काम किया है। दिल्ली में पैदा हुई सफीना डीपीएस (आरकेपुरम) और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस से पढ़ीं हैं। उनसे safeena@educategirls.in पर संपर्क किया जा सकता है।)
(अनुवादक स्वर्णकांता। पत्रकार, अनुवादक। माउंट कार्मेल, पटना वीमेंस कॉलेज और एपवा (ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वीमेंस एसोसिएशन) से शिक्षा-दीक्षा। ओरियाना फलाची की लेटर टू अ चाइल्ड नेवर बॉर्न (अजन्मे बच्चे के नाम खत) और एग्नेस स्मेडले की डॉटर ऑफ अर्थ (धरती की बेटी) सहित कई महत्वपूर्ण किताबों का अनुवाद। उनसे nameswarna@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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