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Wednesday, March 14, 2012

रेल का दिशाहीन सफर

रेल का दिशाहीन सफर 


Thursday, 15 March 2012 10:08

अरविंद कुमार सेन 
जनसत्ता 15 मार्च, 2012: वर्ष 1893 में लिखी गई अंग्रेजी लेखक आर्थर कैनन डायल की मशहूर कहानी 'सिल्वर ब्लेज' का नायक जासूस शेरलॉक हॉम्स दौड़ते कुत्तों और टेलीफोनके खंभों के सहारे गणना करके बताता है कि ब्रिटेन की पटरियों पर दौड़ रही रेल की रफ्तार पचासी किलोमीटर प्रतिघंटा है। आज एक सौ उन्नीस साल बाद भारत जीडीपी के लिहाज से ब्रिटेन को पीछे छोड़ने की दहलीज पर पहुंच गया है, मगर भारतीय रेलवे की सबसे तेज रेलगाड़ी राजधानी एक्सप्रेस की रफ्तार पचासी किलोमीटर प्रतिघंटा है।
तृणमूल कांग्रेस के नेता और रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने शायरी का छौंक लगा कर रेल बजट पेश करने की रिवायत निभा दी है। पुराने रेल बजटों की तर्ज पर ही यह बजट भी उभरती भारतीय अर्थव्यवस्था की जरूरतों से कोसों दूर है। जर्जर आधारभूत ढांचे पर नई रेलगाड़ियों की घोषणा, समय से पीछे चल रही पुरानी योजनाओं पर चुप्पी, रेलगाड़ियों की रफ्तार बढ़ाने का वादा और यात्री सुरक्षा के हवाई दावों जैसी कई चीजें इस बात पर मुहर लगाती हैं कि हमारे रेल बजटों में दूरगामी रणनीति का अभाव रहा है। मौजूदा बजट भी इसका अपवाद नहीं है। 
दरअसल, भारतीय रेल की बदकिस्मती रही है कि सरकारों ने इसका इस्तेमाल रेवड़ियां बांटने के लिए किया है। नीतीश कुमार, लालू यादव और ममता बनर्जी जैसे नेताओं ने रेलमंत्री रहते हुए लोकलुभावन फैसले करने में कोई कसर नहीं रखी, मगर इस कवायद में भारतीय रेल देश के आर्थिक विकास में अहम योगदान देने के अपने लक्ष्य से भटकती गई। रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने भी बिना खजाने की परवाह किए नई घोषणाओं का अंबार लगाया है। मिसाल के तौर पर भारतीय रेल स्टेशन विकास निगम (आईआरएसडीसी) की घोषणा को लिया जा सकता है। 
रेल बजट में कहा गया है कि आईआरएसडीसी के जरिए देश के रेल स्टेशनों को हवाई अड््डों की तरह चमकाते हुए विश्वस्तरीय बनाया जाएगा। विश्वस्तरीय रेलवे स्टेशन तैयार करने का भूत ममता बनर्जी पर भी सवार था, लेकिन रेलगाड़ियों में यात्री सेवाओं को विश्वस्तरीय बनाने पर जोर नहीं दिया जाता है। सामाजिक कल्याण को अपना लक्ष्य बताने वाले रेलवे में यात्रियों के लिए पीने के साफ पानी तक का बंदोबस्त नहीं है। रेल मंत्रालय ने इस दिशा में कदम उठाने के बजाय रेलनीर नाम से महंगा बोतलबंद पानी बेचना शुरू कर दिया और मौजूदा रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने भी बीती बारह फरवरी को सोलह नए रेलनीर संयंत्र लगाने की घोषणा की थी। 
लंदन के हीथ्रो हवाई अड््डे और केंद्रीय लंदन रेल स्टेशन के परिसर विश्वस्तरीय होने के साथ ही वहां की यात्री सुविधाएं भी उम्दा हैं। लंदन का रेलवे स्टेशन किसी अलग टापू पर नहीं बना है, बल्कि ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था के विकास के साथ वहां के सारे क्षेत्रों के साथ विकसित हुआ है। भारतीय रेलवे हमारी अर्थव्यवस्था के साथ कदमताल करने में विफल रहा है। आजादी के समय अंग्रेज चौवन हजार किलोमीटर रेल लाइन छोड़ कर गए थे और बीते पैंसठ सालों के दरम्यान भारतीय रेल ने महज दस हजार किलोमीटर का इजाफा किया है।
रोजाना दो करोड़ यात्री भारतीय रेल में सफर करते हैं और पचीस लाख टन सामान की ढुलाई की जाती है। माल परिवहन और यात्रियों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, मगर रेलवे के पास क्षमता विस्तार के संसाधन नहीं हैं। संसाधनों की परवाह किए बगैर मौजूदा रेलगाड़ियों में अतिरिक्त डिब्बे जोड़ने, उनके फेरे बढ़ाने और नई रेलगाड़ियों की घोषणा की जाती है। नतीजन, संदेश प्रणाली का विफल होना, रेल लाइनों का चिटकना, चलती गाड़ी से डिब्बों का टूटना और रेल पुलों के टूटने से जब-तब हादसे होते रहते हैं। 
रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी ने छियानवे नई रेलगाड़ियां ( 75 एक्सप्रेस और 21 यात्री गाड़ियां) चलाने की घोषणा की है, जबकि पांच सौ से ज्यादा जर्जर पुल कभी भी हादसे को न्योता दे सकते हैं। आधुनिकीकरण का आलम यह है कि साधारण कोहरे में भी रेलगाड़ियां घंटों खड़ी रहती हैं और मानव-रहित रेल-फाटकों पर आए दिन दुर्घटनाएं होती रहती हैं। रेल हादसा होने पर हमारे देश में सबसे ज्यादा जान-माल का नुकसान होता है, क्योंकि पुरानी तकनीक के कारण हमारे यहां रेल के डिब्बे एक दूसरे के ऊपर चढ़ जाते हैं। 
पिछले बीस सालों से तकनीकी उन्नयन के नाम पर कुछ नहीं किया गया है और आज भी बेजा र्इंधन की खपत करने वाले भारी-भरकम लोहे के रेल डिब्बे बनाए जा रहे हैं, जो पर्यावरण और आर्थिक, दोनों लिहाज से घाटे का सौदा हैं। रेलवे सुरक्षा पर गठित काकोदकर समिति ने पिछले दिनों अपनी रपट में कहा है कि सुरक्षा-उपकरणों के आधुनिकीकरण के लिए रेलवे को अगले पांच साल में एक लाख करोड़ रुपए की जरूरत होगी, वहीं रेलमंत्री ने महज चौबीस हजार करोड़ रुपए जुटाने की बात कही है, मगर तुर्रा 'जान है तो जहान है' का लगाया। 
भारतीय रेल की सबसे बड़ी बीमारी यात्री किरायों की है और इसी का सहारा लेकर रेलवे का सारा घाटा आम आदमी के सिर पर मढ़ दिया जाता है। 2002-03 के बाद से यात्री किरायों में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई, मगर इस दौरान तेल और बिजली के दाम बढ़ते गए। हालांकि इस बार यात्री किरायों में मामूली बढ़ोतरी की गई है, मगर इसमें प्रथम श्रेणी पर सबसे ज्यादा बोझ डाला गया है। रेलवे की   बदहाली के पीछे एक पेच यह भी है। भारतीय रेल की सत्तर फीसद आमदनी माल परिवहन से और तीस फीसद आमदनी यात्री किराए से होती है। विडंबना देखिए, माल ढुलाई के लिए रेलवे महज बीस फीसद रेल लाइनों का इस्तेमाल करता है वहीं अस्सी फीसद रेल लाइनों का उपयोग यात्री परिवहन के लिए किया जाता है।

मुश्किल यह है कि हमारे नेताओं ने मान लिया है कि जनता को यात्री सुविधाओं की कोई फिक्र नहीं है, बस किराया कम रहना चाहिए। साल-दर-साल यात्री किरायों में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई, वहीं दूसरी ओर माल परिवहन की दरों में लगातार इजाफा किया गया। यात्री किरायों से होने वाली कम आमदनी को संतुलित करने के लिए माल परिवहन से होने वाली आमदनी और प्रथम श्रेणी के मुसाफिरों पर निशाना लगाया गया। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे क्रॉस सबसिडी कहते हैं जिसमें एक श्रेणी के नुकसान की भरपाई दूसरी श्रेणी के मुनाफे से की जाती है। बेशक जनता को सस्ते किराए के मुगालते में रखा जा सकता है, मगर इसका दोतरफा खमियाजा भी लोगों को ही भुगतना पड़ता है। 
माल परिवहन की दरें महंगी होने का असर दो रूपों में देखने को मिलता है। एक ओर रेलवे से होने वाली जरूरी जिंसों की ढुलाई महंगी होने से जनता को वस्तुएं महंगी दर पर मिलती हैं और महंगाई को सीधे हवा मिलती है। वहीं दूसरी तरफ सड़क परिवहन में इजाफा होता है जिसका असर हरित आवरण में कमी, सड़क हादसों में बढ़ोतरी, र्इंधन की बढ़ती खपत और आखिरकार बढ़े हुए करों के रूप में जनता को भुगतना पड़ता है। जरूरी जिंसों की ढुलाई रेल से ही मुफीद रहती है, लेकिन हमारे देश में इसका उलटा हो रहा है। 
1970 में सत्तर फीसद माल ढुलाई रेलवे से होती थी, वहीं अब यह घट कर तीस फीसद रह गई है। मगर विकसित देशों में यह आंकड़ा अस्सी फीसद से ऊपर है। प्रथम श्रेणी के महंगे टिकटों से बहीखाता दुरुस्त करने का मॉडल भी सस्ते विमानन के दौर में विफल हो गया है। दिल्ली से मुंबई के बीच प्रथम श्रेणी की यात्रा के लिए चार हजार रुपए चुकाने होते हैं, जबकि किफायती विमानन कंपनियां महज पचीस सौ रुपए में यह सेवा मुहैया कराती हैं, ऊपर से आपाधापी के इस दौर में समय की बचत बोनस का काम करती है। 
यही वजह है कि रेलवे देश के महानगरों के बीच बेहतरीन रेल तंत्र होने के बावजूद विमानन क्षेत्र के संकट का फायदा नहीं उठा पाया। इसमें दो राय नहीं कि गरीब और काम की तलाश में शहरों का रुख करने वाले मजदूरों को सस्ते किरायों का फायदा मिलना चाहिए, मगर सभी को एक तराजू में तौलने की कवायद ने रेलवे की माली हालत खस्ता कर दी है। 
आलम यह है कि रेल किरायों पर कोई बात ही नहीं करना चाहता है और सस्ते किराए की आड़ में एक डिब्बे में तीन सौ यात्री घुसा कर दड़बा बना दिया जाता है। अगर रेलमंत्री की नई घोषणाओं को शामिल किया जाए तो रेलवे को चार सौ से ज्यादा परियोजनाओं पर काम शुरू करना है। मौजूदा दरों पर इन परियोजनाओं को पूरा करने के लिए सवा लाख करोड़ रुपए की दरकार होगी, मगर रेलवे की झोली में महज दस हजार करोड़ रुपए हैं। सीधे अल्फाजों में कहें तो रेलवे के पास अपनी वित्तीय जरूरतें पूरी करने के लिए महज आठ फीसद संसाधन हैं। अगर रेल मंत्रालय अगले एक दशक में अपनी घोषणाओं के घोड़े पर काबू रखता है तो भी मौजूदा परियोजनाओं के पूरा होने में पंद्रह साल लग जाएंगे। 
नौकरशाही से दबे रेलवे की कार्यकुशलता बयान करने के लिए पचानवे फीसद की ऊंचाई छू रहा परिचालन अनुपात (हरेक सौ रुपए की कमाई पर खर्च होने वाली रकम) काफी है और रेल बजट में दावा किया गया है कि अगले वित्तवर्ष में परिचालन अनुपात घटा कर 84.9 फीसद कर लिया जाएगा। 
बजट में कहा गया है कि अगले वित्तवर्ष से शुरू हो रही बारहवीं पंचवर्षीय योजना के आखिर में रेलवे मुनाफा कमाने लगेगा। याद रहे, यह लक्ष्य हासिल करने के लिए गंभीर प्रयास किए गए तो भी यह दावा विफल होने की आशंका है, क्योंकि 2016-17 में सातवां वेतन आयोग लागू हो जाएगा, जिससे रेलवे का बहीखाता फिर बिगड़ सकता है। 
भारत की विशाल आबादी को गरीबी के दलदल से निकालने के लिए हमारी अर्थव्यवस्था की रफ्तार आठ फीसद होना जरूरी है और इतनी विकास दर हासिल करने या उसे बरकरार रखने के लिए रेलवे के आगे बढ़ने की दर दस फीसद होनी चाहिए। यह माना हुआ तथ्य है कि विकास का फायदा निचले स्तर तक पहुंचाने के लिए परिवहन तंत्र मजबूत होना आवश्यक है और रेलवे की इसमें अहम भूमिका है। संसद में रेल की सालाना झांकी पेश करने की रस्म-अदायगी के विपरीत भारतीय रेलवे को पटरी पर लाने के लिए पेशेवर प्रबंधन की जरूरत है। 
देश के जीडीपी में रक्षा क्षेत्र की हिस्सेदारी तीन फीसद होने पर इसका लेखा-जेखा संघीय बजट के साथ पेश किया जाता है वहीं रेलवे का जीडीपी में महज एक फीसद योगदान है और इसका अलग बजट पेश किया जाता है। जब रेलवे अपनी वित्तीय जरूरतें पूरी करने में सक्षम नहीं है तो 1921 में खींची गई अलग रेल बजट पेश करने की अंग्रेजी लकीर पीटने की क्या मजबूरी है! सैम पित्रोदा समिति समेत दसियों रेल समितियां इस बात को दोहरा चुकी हैं कि अगर समय रहते भारतीय रेल का इलाज नहीं किया गया तो यह हमारी अर्थव्यवस्था को पटरी से उतार सकता है।

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