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Tuesday, March 20, 2012

आंकड़ों की बाजीगरी से आर्थिक विकास और गरीवी हटाने का करिश्मा!

आंकड़ों की बाजीगरी से आर्थिक विकास और गरीवी हटाने का करिश्मा!

आंकड़ों के सब्जबाग से भले ही राजनीतिक मकसद हासिल हो जाये और वोट बैंक को बुरबक बलाये रखा जा सकें, उद्योग जगत की आंखों में धूल झोंका नहीं जा सकता।

मुंबई से  एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

आंकड़ों की बाजीगरी से आर्थिक विकास और गरीबी हटाने का करिश्मा कर दिखा रहे हैं वित्तमंत्री। उनके इस विकास राग संगीत में संगत निभा रहा है भारत का योजना आयोग।पहले मुद्रास्फीति का पैमाना आधार वर्ष में तब्दीली करके बदल दिया गया। फिर गरीबी की परिभाषा गढ़ी जाने लगी। अब प्रणव बाबू ने आंकड़ों के खेल से राजकोषीय घाटा से निजात पाने की जुगत लगायी है।वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने जो बजट पेश किया, उसे केवल संतुलन साधने की कवायद कहा जा सकता है।वर्ष 2011-12 के केंद्रीय बजट में पहली बार घटे हुए 'प्रभावी' राजस्व घाटे का बजट अनुमान पेश किया गया। इसके लिए मौजूदा अनुदान में पूंजीगत खर्च का समायोजन जीडीपी के 1.8 फीसदी के स्तर पर किया गया। इसके और राजकोषीय घाटे के बीच के अंतर और विनिवेश प्राप्तियों में इजाफे के बाद पूंजीगत खर्च का संरक्षण जीडीपी के 3.25 फीसदी के स्तर पर हो सकता है। राजकोषीय घाटा का मतलब है कि राजस्व आय के मुकाबले में सरकारी खर्च का संतुलन। अब प्रणव बाबू ने इफेक्टिव डेफिसिट लाम की नयी अवधारणा पेश की है। पूंजीगत संपत्ति के सृजन के लिए सरकारी अनुदान और व्यय के पुनर्वन्यास से जो​ ​आंकड़ा बनता है, वह प्रभावी घाटा होगा। इस समीकरण से राजकोषीय  घाटा को कम दिखाया जा रहा है। इस करिश्मे पर जनता भले ही यकीन कर लें और सरकारी अर्थ विशेषज्ञ मुहर लगा दें, पर कारपोरेट जगत को वित्तमंत्रालय के आंकड़ों पर तनिक भरोसा नहीं है। आंकड़ों के सब्जबाग से भले ही राजनीतिक मकसद हासिल हो जाये और वोट बैंक को बुरबक बलाये रखा जा सकें, उद्योग जगत की आंखों में धूल झोंका नहीं जा सकता। इसीलिए बजट से पहले और बाद में वित्तमंत्री के बजट बाषण से ज्यादा नीतिगत फैसले की परिणति पर बाजार की निगाहें टिकी हैं। आंकड़ों का फर्जीवाड़ा बाजार में चालू सिक्का​ ​ बनकर दौड़ेगा इसकी कोई उम्मीद नहीं है।

सोमवार को योजना आयोग की ओर से जारी साल 2009-2010 के गरीबी आंकड़े कहते हैं कि पिछले पांच साल के दौरान देश में गरीबी 7 फीसदी घटी है और इन आंकड़ों के मुताबिक गरीबी रेखा अब 32 रुपये प्रतिदिन की आय से घटकर 28.65 रुपये प्रतिदिन हो गई है।यानि अब 31 रुपये प्रतिदिन खर्च करने वालों के बजाय 28 रुपये प्रतिदिन से कम खर्च करने वाले ही गरीबी रेखा के नीचे हैं. नए फार्मूले के अनुसार शहरों में महीने में 859.60 रुपये और ग्रामीण क्षेत्रों में 672.80 रुपये से अधिक खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है।विश्लेषकों का कहना है कि योजना आयोग की ओर से निर्धारित किए गए ये आंकड़े भ्रामक हैं और ऐसा लगता है कि आयोग का मक़सद ग़रीबों की संख्या को घटाना है ताकि कम लोगों को सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का फ़ायदा देना पड़े। राज्यसभा में गरीबी के इस आंकड़े पर मंगलवार को विपक्ष ने जमकर हांगामा किया और बहस कराने की मांग की। गरीबी के नए आंकड़ों को लेकर आलोचना का सामना कर रहे योजना आयोग ने मंगलवार को स्वीकार किया कि एनएसएसओ के आंकड़ों और राष्ट्रीय लेखा में गंभीर विसंगति के चलते शहरों में गरीबी रेखा के तहत प्रति व्यक्ति दैनिक खपत 28.65 रुपये सामने आई। एनएसएसओ के आंकड़ों की गुणवत्ता के बारे में पूछे गए सवालों का जवाब देते हुए योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने कहा कि उपभोक्ता सर्वेक्षण और राष्ट्रीय लेखा के बीच विसंगति एक गंभीर सांख्यिकी समस्या है।आयोग ने परिवार उपभोक्ता खर्च सर्वे पर 66वें दौर का राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (2009-10) पर आधारित गरीबी के आंकड़े कल जारी किए। राष्ट्रीय आय के लिए आंकड़े उपलब्ध कराने वाला राष्ट्रीय लेखा केंद्रीय संगठन (सीएसओ) द्वारा तैयार किया जाता है।

वित्त मंत्री को काफी संतुलन साधने थे। उनके सामने तो सवाल है कि पैसा कहाँ से आयेगा – आप टैक्स देने को तैयार हैं नहीं। उन्होंने उत्पाद शुल्क 2% बढ़ा कर 12% किया है, जो 2008 में 14% पर था। अगर वे वापस 14% कर देते तो उद्योग जगत शोर मचाना शुरू कर देता।  वित्तीय दायित्व और बजट प्रबंधन कानून एफआरबीएम के तहत २००३ से हर निर्वाचित सरकार की कानूनी जिम्मेवारी राजकोषीय घाटा कम​ ​ करने की है। इस लक्ष्य को पाने का प्रणवदादा ने सबसे सहज रास्ता यही निकाला को लक्ष्य को ही बदल दिया और  राजकोषीय घाटा कम किये बिना उसे कम दिखाने का इंतजाम कर लिया। पर कम दिखा देने से घाटा तो कम नहीं हो जाता और अर्थ व्यवस्था और बाजार दोनों पर उसका असर जस का तस बना रहता है। आंकड़ों के फर्जीवाड़े से इसतरह सरकार की नीयत पर ही उदोयग जगत को शक होने लगा है। मुखर्जी प्राक्सी टारगेट इफेक्टिव डेफिसिट को ही राजकोषीय घाटा बता रहे हैं।इसके अलावा राजकोषीय घाटा नियंत्रण की समय सीम बी खींच तान कर छह साल के लिए यानी ३१ मार्च २०१५ तक बढ़ा लिया है।बजट में 513590 करोड रूपए के राजकोषीय घाटे का अनुमान लगाया है, जो सकल घरेलू उत्पाद का 5.1 प्रतिशत है। यह 2011-12 में सकल घरेलू उत्घ्पाद का 5.9 प्रतिशत अर्थात 521980 करोड रुपए था। बजट अनुमान 2012-13 में प्रभावी राजस्व घाटा 185452 करोड रुपए है, जो सकल घरेलू उत्पाद का 1.8 प्रतिशत है। वि‍त्‍त पोषण की अन्‍य मदों को ध्‍यान में रखने के पश्‍चात दि‍नांकि‍त प्रति‍भूति‍यों के माध्‍यम से शुद्ध बजार कर्ज से इस घाटे का वि‍त्‍त पोषण 4.79 लाख करोड़ रूपये है इससे 2012-13 के अंत में कुल ऋण स्‍टॉक 13वें वि‍त्‍त आयोग सकल घरेलू उत्‍पाद के 50.5 प्रति‍शत के लक्ष्‍य की तुलना में सकल घरेलू उत्‍पाद का 45;5 प्रति‍शत है ।

प्रणव बाबू ने सरकारी व्यय को अनुदान के खाते में दिखाकर यह करिश्मा कर दिखाया है। मनरेगा समेत तमाम सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं,​​जिससे देहात में वंचितों को क्रयशक्ति देकर बाजार के लिए मांग रचने का लक्ष्य है, प्रणव बाबू ने नये सिरे से श्रेणीबद्ध करके उन्हें व्यय के बजाय अनपदान बता दिया है, जो राजकोषीय घाटे में नहीं जुड़ता।महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के लिए पूंजी का अनुमान इस कार्यक्रम के लिए किए गए बजटीय प्रावधान में किया गया है। मनरेगा मुख्यतौर पर नकदी हस्तांतरण वाली योजना है हालांकि इसमें काम के बदले धन दिया जाता है लेकिन इससे होने वाला संपत्ति निर्माण बहुत गौण होता है। यह जन निवेश का कोई ऐसा ढांचागत कार्यक्रम नहीं है जिसकी बदौलत देश की अर्थव्यवस्था के संभावित विकास का विस्तार हो सके।  प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना (पीएमजीएसवाई) पूरी तरह सड़क निर्माण के काम से संबंधित है और इसके जरिए स्थायी परिसंपत्ति का निर्माण होता है। लेकिन इस योजना के लिए तय कुल राशि का 80 फीसदी ही पूंजीगत हिस्से के रूप में दिखाया जाता है। सरकार अनुदान के बहाने सरकारी व्यय को कम दिखाकर राजकोषीय घाटे को इसतरह कम दिखा रही है और बाजार की आंखों में बेनकाब हो रही है। इसी तरीके के तहत वित्त मंत्री ने बिना कुछ ज्यादा दिये काफी क्षेत्रों को छूने की कोशिश की है। उन्होंने कुछ काम शिक्षा क्षेत्र के लिए कर दिया, बुनियादी ढाँचा संस्थानों को ज्यादा करमुक्त बांड जारी करने की सुविधा दी। तमाम अलग-अलग क्षेत्रों के लिए उन्होंने थोड़ा-थोड़ा काम कर दिया।  पारंपरिक तौर पर केंद्र के स्तर पर राजकोषीय विधानों के जरिए पूंजीगत खर्च को जीडीपी के 3 फीसदी के दायरे में रखा जाना है। इसके लिए राजस्व घाटे को शून्य और कुल राजकोषीय घाटे को 3 फीसदी रखने का लक्ष्य तय है। हालांकि अगर विनिवेश होता है तो पूंजीगत खर्च तय दायरे के मुताबिक कहीं अधिक होगा। अन्य देश ऐसे ही लक्ष्यों को चालू खर्च के लिए एक संतुलित बजट के जरिए हासिल करते हैं। राज्यों की योजनाओं को केंद्र द्वारा दी जाने वाली आर्थिक सहायता जरूर सूचीबद्घ है लेकिन केंद्र प्रायोजित योजनाओं(सीएसएस) के लिए सीधे राज्य सरकारों को दी जाने वाली धनराशि केवल मूल मंत्रालय में सूचीबद्घ होती है। इसे योजना के आधार पर सूचीबद्घ नहीं किया जाता। हम जानते हैं कि पिछड़ा वर्ग अनुदान कोष (बीआरजीएफ) जैसी पूरी तरह केंद्र पोषित योजनाओं में अलग-अलग मंत्रालय शामिल हो सकते हैं। मसलन बीआरजीएफ का राज्य वाला हिस्सा वित्त मंत्रालय से आता है जबकि जिला आधारित भाग पंचायती राज मंत्रालय से हासिल होता है।

मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) ने मंगलवार को योजना आयोग पर देश में व्याप्त गरीबी को छुपाने का आरोप लगाया। पार्टी ने एक बयान में कहा, "माकपा मानती है कि योजना आयोग देश में बढ़ती गरीबी और असमानता को छुपाने की कोशिश कर रही है।"

बयान में कहा गया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यह सुनिश्चित करें कि इस गलत आंकड़े के आधार पर किसी भी गरीब को बीपीएल कार्ड देने से इंकार नहीं किया जाए और न ही राज्य सरकार को कल्याणकारी योजना के लिए कोष मुहैया कराने में इस आंकड़े का उपयोग हो।

योजना आयोग ने विवादास्पद तेंडुलकर कमिटी की प्रणाली पर आधारित अपना ताजा आकलन पेश किया है। इसके मुताबिक, शहरी क्षेत्र में 859.60 रुपये प्रति महीने और ग्रामीण क्षेत्र में 672.80 रुपये प्रति महीने खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है। योजना आयोग ने इस आकलन में गरीबी रेखा को प्रति व्यक्ति 32 रुपये प्रतिदिन (शहरी क्षेत्र) और 26 रुपये प्रतिदिन (ग्रामीण क्षेत्र) की उस सीमा से भी नीचे रखा है, जिसे आयोग ने पिछले साल पेश किया था। जून 2011 की कीमतों पर आधारित इस आंकड़े के कारण खासा विवाद पैदा हो गया था।

आयोग ने कहा कि 2009-10 में भारत की गरीबी का अनुपात 29.8 फीसदी रहा। 2004-05 में देश में 37.2 फीसदी लोग गरीब थे। सोमवार को जारी रिपोर्ट में कहा गया कि 2004-05 से 2009-10 के बीच शहरी इलाकों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी का अनुपात तेजी से घटा है। वित्त वर्ष 2009-10 में देश में गरीबों की कुल संख्या 37.47 करोड़ रही, जो कि 2004-05 में 40.72 करोड़ थी।

आधिकारिक बयान के मुताबिक, ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी का अनुपात 8 फीसदी घटकर 41.8 फीसदी की जगह 33.8 फीसदी पर और शहरी इलाकों में गरीबी 4.8 फीसदी घटकर 20.9 फीसदी पर आ गई, जो पांच साल पहले 25.7 फीसदी थी। हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, सिक्किम, तमिलनाडु कर्नाटक और उत्तराखंड में गरीबों का अनुपात 10 फीसदी से भी ज्यादा गिरा। इसी दौरान पूर्वोत्तर राज्यों में असम, मेघालय, मणिपुर, मिजोरम और नागालैंड में गरीबी बढ़ी है।

बिहार, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश जैसे अपेक्षाकृत बड़े राज्यों में गरीबी के अनुपात विशेष तौर पर ग्रामीण इलाकों में गरीबी में कमी तो आई है पर यह कमी बहुत ज्यादा नहीं है। गरीबी के आकलन के दौरान भोजन में कैलरी की मात्रा के अलावा परिवारों द्वारा स्वास्थ्य और शिक्षा पर किया जाने वाला खर्च भी गौर किया गया है। धार्मिक समूहों के आधार पर की गई गणना में सिख आबादी में गरीबों का अनुपात ग्रामीण इलाकों में 11.9 फीसदी रहा। शहरी इलाकों में ईसाइयों में गरीबों का अनुपात 12.9 फीसदी रहा जो शहरी इलाकों में अन्य धार्मिक समूहों की तुलना में सबसे कम है। शहरी इलाकों में अखिल भारतीय स्तर पर मुसलमानों में गरीबी का अनुपात सबसे अधिक 33.9 फीसदी है।

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