एक किताब बदलाव के लिये
लेखक : नैनीताल समाचार :: अंक: 20 || 01 जून से 14 जून 2011:: वर्ष :: 34 :July 16, 2011 पर प्रकाशित
http://www.nainitalsamachar.in/uttarakhand-ke-sulagtey-sawal-book-review/
एक किताब बदलाव के लिये
लेखक : नैनीताल समाचार :: अंक: 20 || 01 जून से 14 जून 2011:: वर्ष :: 34 :July 16, 2011 पर प्रकाशित
उत्तराखंड राज्य के गठन में पत्रकारों की एक बड़ी भूमिका थी। इस भूभाग की समस्याओं को उजागर करने के साथ ही एक पृथक राज्य के औचित्य को सिद्ध कर में पत्रकारों ने डट कर काम किया। यही नहीं, उस दौर में हुई रिपोर्टिंग ने आन्दोलनरत जनता का मनोबल बनाये रखा। इन दस-ग्यारह सालों में स्थितियाँ एकदम उलट गई हैं। सरकारें दावा करती हैं कि उन्होंने उत्तराखंड की तकदीर बदल कर रख दी है और मीडिया 'वाह-वाह' करता दिखाई देता है। देहरादून की किसी प्रेस कांफ्रेंस में चले जाइये, संवाददाताओं की एक ऐसी 'हाई-फाई' जमात मिलती है, जिसे राज्य आन्दोलन के समय नाक साफ करने का भी तमीज नहीं रहा होगा। उनसे यह उम्मीद करना कि वे उत्तराखंड के बुनियादी मुद्दों से परिचित होंगे, बहुत बड़ी ज्यादती होगी। लेकिन ज्यादा पीड़ाजनक तथ्य यह है कि आन्दोलन के दौर के बहुत सारे पत्रकारों के पतन की कहानियाँ देहरादून में हर जगह सुनाई देती हैं। किस पत्रकार ने किस मंत्री के साथ मिल कर क्या सौदा करवाया, ऐसी चर्चायें आम हैं। खाँटी आन्दोलनकारियों की तरह खाँटी पत्रकार भी देहरादून में दुर्लभ हो गये हैं। राज्य बनने के बाद पत्रकारिता में दृष्टि और प्रतिबद्धता का विलोपन एक बड़ी समस्या बन कर उभरा है। इस परिदृश्य में शंकर सिंह भाटिया सरीखे पत्रकार, जो 1994 के तूफानी दिनों में डट कर जनता के साथ खड़े थे और आज भी उत्तराखंड के मूल सवालों से पूरी मुस्तैदी से जूझ रहे हैं, उंगलियों पर गिने जाने लायक रह गये हैं।
15 मई को दून विश्वविद्यालय में शंकर सिंह भाटिया की 'उत्तराखंड के सुलगते सवाल' नामक पुस्तक का विमोचन प्रो. पुष्पेश पंत द्वारा किया गया। ये वे सवाल हैं, जिनसे उत्तराखंड आन्दोलन से ईमानदारी और गहराई से जुड़े लोग भले ही वाकिफ रहे हों, लेकिन अब तो वे भी बिसराने लगे हैं। उत्तराखंड को कम जानने वाले अथवा नयी पीढ़ी के लोगों के लिये तो ये सवाल बहुत अधिक चौंकाने वाले होंगे। पृथक राज्य की माँग के शैशव में हमारे हिमालय जैसे महाकाय नेताओं की अपनी मातृभूमि से गद्दारी से लेकर आज की सत्ताधारी पाटिर्यों द्वारा अपने राष्ट्रीय नेताओं के लगुए-भगुओं को 'आयात' कर नितान्त महत्वपूर्ण पद सौंप देने जैसे सवाल यह सोचने को मजबूर करते हैं कि क्या केन्द्र सरकार और उत्तर प्रदेश के उत्तराखंड नामक इस उपनिवेश में सामान्य पहाड़ी की हालत कीड़े-मकोड़ों से बेहतर कभी नहीं होगी ? क्या हमारे बेशुमार संसाधनों की लूट तभी रुकेगी, जब यह प्रदेश पूरी तरह कंगाल हो चुका होगा ? अन्ततः हिमाचल में उत्तराखंड से बेहतर ऐसा क्या है कि वह स्थापना के समय से ही हमसे आगे रहा ? गैरसैंण में राजधानी न बनने के पीछे उन नौकरशाहों का योगदान कितना है, जो पहाडि़यों को नोंचने-खसोटने को अपना सबसे बड़ा धर्म मानते रहे हैं ? ये बेचैन करने वाले सवाल हैं।भाटिया राज्य आन्दोलन के दौर से अब तक अपनी दैनिक अखबारी पत्रकारिता में भी अपनी सीमाओं के भीतर यथासम्भव इन्हें उठाते रहे हैं। इस किताब ने उन्हें मौका दिया है कि इस विषय पर खुल कर और पूरी आक्रामकता से, यहाँ तक कि मानहानि का खतरा उठा कर भी लिखें।
किताब लिखने भर से ही भाटिया संतुष्ट नहीं हैं। वे इस किताब को लेकर जगह-जगह गोष्ठियाँ भी कर रहे हैं, ताकि ये सवाल सिर्फ एक किताब के पन्नों के भीतर ही न सिमटे रहें बल्कि उत्तराखंडी जनता के दिमाग पर हथौड़े की तरह चोट कर उसे आन्दोलन के लिये उठ खड़े होने को प्रेरित करे। अब तक टिहरी और पौड़ी नगरों में ऐसी गोष्ठियाँ हो भी चुकी हैं और 1 जून से वे पूरे प्रदेश का दौरा कर गोष्ठियों की श्रृंखला शुरू कर रहे हैं। दिक्कत यह भी है कि महज तीन सौ पृष्ठों की किताब की कीमत छः सौ रुपया होना इच्छा रहने पर भी पाठक को दूर छिटका देता है। अब भाटिया ने पर्वतीय क्षेत्र में इस किताब की कीमत आधा करने की घोषणा की है।
किताब की अपनी कमजोरियाँ हैं। उत्तराखंड के प्रति भाटिया का गहरा लगाव कुछ मुद्दों पर जमीनी हकीकत को नकारने लगता है। मसलन जल विद्युत परियोजनाओं के संदर्भ में वे स्थानीय स्तर पर ग्रामीणों द्वारा लड़ी जा रही अस्तित्व की लड़ाई को तवज्जो नहीं देते। विषयों में दुहराव भी हुआ है। बेहतर सम्पादन से किताब को ज्यादा चुस्त और सुपाठ्य बनाया जा सकता था। लेकिन भाटिया का संकल्प और परिश्रम इन कमियों पर भारी पड़ता है। उम्मीद करनी चाहिये कि यह किताब उत्तराखंड आन्दोलन में आई जड़ता को तोड़ने में सफल होगी।
उत्तराखंड के सुलगते सवाल/ लेखक: शंकर सिंह भाटिया/ प्रकाशक: उत्तराखंड शक्ति प्रकाशन/ ग्राम व पो. नागल ज्वालापुर, डोईवाला, देहरादून (मो. 9412303770)/ मूल्य: 600 रु.
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