एक माह आठ दिन चलती है थरूवाटी होली
लेखक : नैनीताल समाचार :: अंक: 14 || 01 मार्च से 14 मार्च 2012:: वर्ष :: 35 :March 14, 2012 पर प्रकाशित
नवीन बगौली
उधमसिंह नगर जिले के खटीमा, सितारगंज, किच्छा, बाजपुर आदि तहसीलों में, सात उप समूहों में रहने वाली थारू जनजाति का इतिहास राजस्थान के थार मरुस्थल से जुड़ हुआ है। खुद को महाराणा प्रताप के वंशज कहने वाले थारूओं में होली एक सांस्कृतिक महोत्सव है, जिसे वे पूरे एक माह आठ दिन तक मनाते हैं। होलिका दहन से पहले जिन्दी होली होती है और फिर बाद में मरी होली। हालाँकि सम्यता से जुड़ते थारू समाज ''कनैया गोपी के संग होली खैलो रै, तुजै आज भीगो डालूँ गो, यह तेरों में सखी का हो होरी है री'' के स्वर अब मंद पड़ रहे हैं।
शिवरात्रि से शुरू होने वाली होली, होलिका दहन तक जिंदी होली के रूप में मनाई जाती है। दहन के ठीक आठ दिन बाद तक मरी होली के रूप में मनाई जाती है। जिंदी होली में दिन में गाँव के पधान के घर होली गायी जाती है। फिर रात को एक-एक कर, अपने कुर्मा-टब्बर यानी बिरादरी और अन्य समुदाय उप समुदायों के यहाँ होली गायन होता है। समाज के लोग पधान के घर से उत्तर दिशा से दक्षिण की ओर प्रत्येक घर में जाकर होली खेलते हैं। जिंदी होली में खूब रंग, गुलाल उड़ाया जाता है। गीले-सूखे रंग खूब चलते हैं। लेकिन मरी होली में रंग खेलना अच्छा नहीं माना जाता। महिला-पुरुषों में बराबरी से मनाए जाने वाले इस त्योहार की शुरूआत गणपति आराधना, शिव पार्वती स्तुति और भरारे बाबा की आराधना के गीत गा कर किया जाता है-
मेरो गणपति आवे होरी खेलन रे,
मेरो गणपति आवे होरी खेलन रे,
शिव-परवती को लोड़ो गजपति
आवे होरी खेलन रे
इसके साथ शुरू हुई होली महाभारत के पूरे प्रसंग पर गाई जाती है
कैसो भयो संग्राम भयंकर, कुरुक्षेतर में
पांडव-कौरब संगे-संगे भइया, जर-जोरू को लड़े रे
ऐसे जैसे लड़े कसइया
कसो भयो संग्राम भयंकर कुरुक्षेतर में
रामायण, श्रीमद्भागवत और गीता के प्रसंगों पर भी होली का धमाल होता है। श्रीकृष्ण की बाल लीला से लेकर उनके करतबों और उनकी सभी कलाओं का जिक्र भी होली के माध्यम से किया जाता है। फिर शुरू होती है प्रेम रस में डूबी होली-
छैल्ला आज की रैन सुहावर रस चुनर भीगे रे
हंसी ठिठोली में फिर राग शुरू होता है-
लाहवरियाँ मैरो भीगे रे ऐसे रंग भरी नन्दलाल
या
सखी आज रंग से भीगो दो,
तौरी मेरी हाली आई रै
कनैया गोपी के संग खैलो रै,
तुजै आज भीगो डालूँगो,
या
यह तेरो में सखी का हो होरी है री
घर-घर तैरहूँ देखते फिर सखें की नारी,
बानयें की गोपू नाथ की बरी आनी
और
लभरिया मेरों भीगे रे, सांवरिया मेरो भीगे रे
वो छोड़ों आवे मेघ, या बाढ़ के आवे मेघ
ऐसे किते बदलिया उमड़ी रे
आदि बोलों की भी खूब धूम रहती है।
थारू होली में ढोल और झाँझ, दो वाद्य यंत्रों का अधिक प्रयोग होता है। दो अर्द्र्ध वृत्ताकार घेरों में एक तरफ स्त्री और एक तरफ पुरुष क्रमशः खड़े होकर गीत गाते हैं और हाथों में रूमाल लेकर नृत्य करते हैं। रात और दिन दोनों वक्त होली खेली जाती है। पुरुष पहले झगिरा पहनते थे और महिलाएं घाघरिया। अब पुरुष कुर्ता-पायजामा और महिलाएँ साड़ी पहन कर होली खेलते हैं।
छरड़ी के दिन रंग खेला जाता है। होलिका दहन में मूँज के झाड़़ू को होलिका की आग में तपाने की परंपरा है, फिर उसे घर पर रखा जाता है। इस दौरान थारू समुदाय के भरारे डांगर राजस्थानी बोली में तमाम मंत्रोच्चार करते हैं और पूरी रात जागरण होता है। उसी दिन से फिर मरी होली शुरू होती है। मरी होली आठ दिन तक चलती है। ठीक आठवें दिन होलिका दहन की रात को पधान के घर में रखे हुए खखणेरा (जिसे नए घड़े को फोड़कर उसकी मिट्टी के टुकड़ों और अनाज आदि मिला कर बनाया जाता है) को लेकर सुबह चार बजे गाँव की दक्षिण दिशा में पधान और सभी गाँव के लोग उसे डंडों से पीटते हैं। कहीं-कहीं, जहाँ घड़े में इसे ले जाया जाता है वहाँ पधान इसे हल से भी फोड़ता है। इस समय गाँव की किसी भी औरत से कोई भी मजाक कर सकता है, कुछ भी कह देता है तो उसका बुरा नहीं माना जाता। खखणेरा विसर्जित करने के बाद सभी लोग वहाँ से भाग जाते हैं और पीछे मुड़कर नहीं देखते। मान्यता है कि ऐसा करने से दुःख, दर्द, रोग इत्यादि सब कष्ट गाँव छोड़कर भाग जाते हैं।
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