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Wednesday, January 18, 2012

संसद बनाम आंदोलन

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/9148-2012-01-18-05-08-58

Wednesday, 18 January 2012 10:37

अनिल चमड़िया

जनसत्ता 18  जनवरी, 2012: राजनीति में जातिवाद, सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद का इस्तेमाल जगजाहिर है। राजनीति का एक नया हथियार संसदवाद बना है। यह भारतीय राजनीति का दिलचस्प मुकाम है। इस संसदवाद की मुखर पहचान भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल जैसी संस्था बनाने की मांग को लेकर चले आंदोलन के दौरान हुई। इस संसदवाद की वैचारिकी एक नए मिजाज की है। कांग्रेस प्रवक्ता मोहन प्रकाश ने भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन से निपटने का एक राजनीतिक रास्ता निकालने की मशक्कत की। वे समाजवादी विचारों को मानने वाले राजनीतिक के रूप में जाने जाते हैं। राजनीति रुख तय करने की काबिलियत पर चलती है। उन्होंने दलील दी कि संसद की सर्वोच्चता को कोई चुनौती नहीं दे सकता। 
संविधान सर्वोपरि है। इस रुख से भ्रष्टाचार के पर्दाफाश से परेशान न केवल कांग्रेस ने राहत की सांस ली, बल्कि सभी संसदीय पार्टियों को भ्रष्टाचार-विरोधी गैरदलीय आंदोलन से निपटने का एक रास्ता नजर आया। लगभग सभी पार्टियों ने कांग्रेस की उस लाइन का अनुसरण किया। इस तर्क का सामाजिक विस्तार भी किया गया। संसदवाद ने संसद की सर्वोच्चता को चुनौती मिलने का हौवा खड़ा किया और फिर इसे संविधान को दी जा रही चुनौती बताते हुए इसे भीमराव आंबेडकर पर भी हमला करार दिया। इस रुख की व्याख्या का जितना विस्तार हो सकता था वह हुआ। 
क्या आंदोलन संसद और संसदीय व्यवस्था विरोधी होते हैं? शायद ही कोई इसका जवाब हां में देगा। बल्कि कहा जाएगा कि संसदीय व्यवस्था और आंदोलन एक दूसरे के पूरक हैं। संसद में बैठे प्रतिनिधियों में कई ऐसे भी हैं जो किसी न किसी आंदोलन से निकले हैं। लेकिन प्रवृत्ति के तौर पर देखें तो  यह सच है कि संसदीय राजनीति से आंदोलन की विदाई हो चुकी है। इसलिए यह अकारण नहीं है कि पिछले डेढ़-दो दशक से देश में जो भी आंदोलन चले हैं या चल रहे हैं, संसदीय दलों से उनका नाता नहीं रहा है। मौका मिलने पर कोई पार्टी किसी आंदोलन को भुनाने की कोशिश करे तो वह अलग बात है। मगर कुल मिला कर देखें तो संसदीय राजनीति एक नए सिरे से परिभाषित की जा रही है। इसी आलोक में संसदवाद की अवधारणा को देखा जाना चाहिए। 
संसदीय व्यवस्था की अब तक की मोटी समीक्षा में ये तथ्य उभर कर सामने आएंगे कि पिछले पैंसठ वर्षों में उसका विस्तार नहीं हुआ है। अब तक किसी भी चुनाव में सत्ता पर काबिज पार्टी यह दावा करने की स्थिति में नहीं पहुंच सकी है कि उसे देश की अधिकतर जनता का समर्थन हासिल है। कई चुनाव तो ऐसे भी हुए हैं जिनमें कुल मतदान पचास फीसद भी नहीं हुआ। 
अब तक चुनावों में होने वाले मतदान की संख्या के आधार पर यह बताया जाता रहा है कि किस पार्टी को मतदान का कितना प्रतिशत हिस्सा मिला। देश की कुल आबादी के आधार पर निकालें तो सत्ता पर काबिज पार्टियों को कुल आबादी का चंद प्रतिशत ही मत मिलता रहा है। संसदीय-व्यवस्था समाज की यथास्थिति में परिवर्तन का आधार बनने के बजाय समाज पर वर्चस्व रखने वाले समूहों के हितों को पूरा और सुरक्षित करती आ रही है। 
मतदान से दूर रहने वालों को क्या संसदीय व्यवस्था के विरोधी के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए? संसदीय व्यवस्था के विरोध की कई धाराएं होने की बात एक दूसरी बहस है। मौजूदा स्थिति यह है कि संसदीय राजनीति करने वाला लगभग हर सदस्य कठघरे में खड़ा है। मतदाताओं के सामने यह विकल्प नहीं है कि वे चुनाव की व्यवस्था से अलग अपनी सरकार बनाने का मत जाहिर कर सकें। मतदान राजनीति पर भरोसे के परिचायक के रूप में नहीं देखा जाता है। 
मतदान की मौजूदा स्थिति पर एक सजग प्रतिक्रिया यह सुनने को मिली है कि परिवर्तन और लोकतंत्र की विचारधारा को छोड़ कर मतदाता कतार में खडेÞ दिखाई देने लगे हैं। देश में नक्सलवादी विचारधारा को मानने वाली पार्टियां और ग्रुप संसदीय-व्यवस्था का विरोध करते और मतदान के बहिष्कार का नारा देते आए हैं। लेकिन उन्हें कभी भी इसमें कोई उल्लेखनीय कामयाबी नहीं मिली। इसे इस रूप में भी देखा गया है कि देश का अवाम किसी भी तरह के हिंसक बदलाव में यकीन नहीं करता है और संसदीय व्यवस्था में उसकी आस्था है। निश्चय ही नक्सलवादियों के रास्ते बदलाव को मतदाताओं ने स्वीकार नहीं किया है। सरकारों ने नक्सलवादियों के रास्ते के बरक्स अहिंसावाद के प्रति मतदाताओं का समर्थन हासिल किया है। लेकिन भूमंडलीकरण के बाद संसदीय राजनीति में एक बुनियादी बदलाव आया है। उसे सूत्र रूप में इस तरह देखा जा सकता है कि नक्सलवादियों के खिलाफ लड़ाई का नारा बिल्कुल बदल गया है। 
नक्सलवादी आंदोलनों को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समस्या के रूप में देखने और हल करने का जो नजरिया था वह पूरी तरह से बदल गया। नक्सलवाद को राष्ट्रवाद के विरोध के रूप में नियंत्रित करने की नई रणनीति सामने आई। इस नजरिए में बदलाव को भी समझा जाना चाहिए। जब यह स्वीकार किया जाता रहा कि आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक समस्याओं


का नतीजा यह आंदोलन है तब तक संसदीय पार्टियों पर भी यह दबाव रहा कि वे भूमि समस्या और न्यूनतम मजदूरी जैसे बुनियादी मुद्दों पर अपना आंदोलनकारी रुख जाहिर करें।
लेकिन जैसे ही केवल हिंसा को नक्सलवादी आंदोलन के चेहरे के रूप में पेश करने की स्वीकृति मिली उससे इस नजरिए को बदलना आसान हो गया। इसमें भूमंडलीकरण के बाद नए सिरे से खुद को पुनर्गठित करने में लगी लगभग सभी संसदीय पार्टियों ने अपनी भूमिका अदा की। पश्चिम   बंगाल के संदर्भ में माकपा तक की दृष्टि में जो बदलाव दिखाई देता है उसे भी इसकी कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए। दूसरी तरफ भूमंडलीकरण के समर्थन की स्थिति में संसदीय पार्टियों ने खुद को राष्ट्रवाद के पुराने नारे के करीब लाकर खड़ा कर लिया। गौर करें तो यह देखा जा सकता है कि नक्सलवादी हिंसा के विरोध के नाम पर देश भर में उन तमाम आंदोलनों को कुचला गया जिनके मुद्दों से संसदीय पार्टियां दूर होती गई हैं। या दूसरी तरह से कहें कि हर वैसे आंदोलन को नक्सलवाद के ठप्पे के सहारे कुचलने और संसदीय पार्टियों की चुप्पी की वैधता बनती चली गई। जबकि ज्यादातर आंदोलन इस दौर में सत्ता से कुछ हासिल करने के लिए नहीं हो रहे थे बल्कि सत्ता के आक्रमण से अपने अस्तित्व और अपने मानवीय और राजनीतिक हकों को बचाने के मुद्दों से जुड़े हुए थे।
एक तरह से नक्सलवाद की लड़ाई का चेहरा हिंसक रूप में पेश करने की रणनीति वास्तव में परिवर्तनकारी आंदोलनों के विरोध के रास्ते पर संसदवाद को ले जाने के लिए बनाई गई थी। इसी परिप्रेक्ष्य में भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलनों के साथ संसदीय पार्टियों के व्यवहार को देखा जाना चाहिए। भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलनों के मंच से बार-बार इस बात पर जोर दिए जाने के अर्थ तलाशने की जरूरत नहीं कि हम हिंसा में यकीन नहीं करते हैं। 
आंदोलन करने वालों की तरफ से आंदोलन को तेज करने की योजना बनाने से ज्यादा यह चेतावनी प्रसारित करने का दबाव था कि हिंसक गड़बड़ी पैदा करने की कोशिश की जा सकती है। दरअसल, आंदोलनों से निपटने की जो रणनीति अहिंसावाद के रूप में अब तक कारगर होती जा रही थी उसने आंदोलनों पर मनोवैज्ञानिक तौर पर दबाव बना दिया है। उसे सफाई देनी पड़ती है। 
भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन ने संसदीय सत्ता द्वारा आंदोलनों से निपटने के दो तरीके विफल किए। एक तो उसने अहिंसावाद का पाठ सरकार की तरह से पढ़ना शुरू किया और दूसरे उसने राष्ट्रवाद के सबसे उग्र नारे के करीब खुद को खड़ा दिखाया। यह पहला अवसर था जब सरकार चला रही पार्टियों ने ही नहीं बल्कि लगभग सभी संसदीय पार्टियों ने संसदवाद को खतरे में महसूस किया और संसदवाद को बचाने की एकताबद्ध कोशिश की। लेकिन इसे एक दूसरे रूप में भी देखा जाना चाहिए कि इससे आंदोलनों से संसदीय राजनीति के दूर होते जाने का सच भी सामने आया। संसदीय पार्टियां बेहद लाचार नजर आर्इं। एक यह भी संदेश साफ तौर पर सुनाई दिया कि सांसद, जिनका काम मुख्यत: कानून बनाना है, उससे भी भाग रहे हैं। संसद मतदान की विकल्पहीन व्यवस्था के बावजूद लाचार नजर आई। यानी संसद के साथ मतदान है, लेकिन मतदाता नहीं हैं। संसद का स्वर अब तक के इतिहास से बिल्कुल बदला हुआ सुनाई दिया। 
बहरहाल, इस पूरे घटनाक्रम का यह निचोड़ निकल कर सामने आया कि संसदवाद को ही पार्टियों ने आंदोलनों से निपटने के एक रास्ते के रूप में देखा। शीतकालीन सत्र से पूर्व संसद जो बैठी थी दरअसल वह संसदवाद के नए सिरे से गठन की भी बैठक थी। उसी संसदवाद ने यह आश्वासन दिया था कि शीतकालीन सत्र में भ्रष्टाचार-विरोधी कानून की मांग पूरी की जाएगी। लेकिन संसद इसे पूरा नहीं कर सकी। 
इस संसदवाद की अंतर्धारा में एक प्रच्छन्न तानाशाही की मौजूदगी के संकेत मिल रहे हैं। इस स्थिति की जरा कल्पना करें कि एक तरफ तो यह कहा जाता है कि चुनाव यानी मतदान संसद की जान है लेकिन देश को दिए गए भरोसे को तोड़ कर भी  पार्टियां चुनाव में जाने का दुस्साहस कर रही हैं। इसका अर्थ क्या निकाला जा सकता है? उन्हें यह तो पक्का लगता है कि भरोसे को तोड़ना संसदीय पार्टियों की विकल्पहीनता की स्थिति को बदलने की लड़ाई का कारण नहीं बनेगा। शायद यह सच भी है। 
इस संसदवाद को इस तरह से समझने की कोशिश की जानी चाहिए कि यह जीवंत और परिवर्तनशील लोकतंत्र के लिए चलने वाले आंदोलनों की विदाई की घोषणा कर चुका है। आंदोलनों को तय करना है कि इस संसदवाद से निपटने का क्या रास्ता अख्तियार करें। डॉ लोहिया कहते थे कि जिंदा कौम पांच साल तक इंतजार नहीं करती, तो वह चुनाव को परिवर्तन के एकमात्र रास्ते के रूप में ग्रहण नहीं करने की चेतावनी थी। अब जब संसदवाद को आंदोलनों को अनसुना करने की एक वैचारिकी और उन्हें कुचलने के एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है डॉ लोहिया की उस चेतावनी की अहमियत और बढ़ जाती है।

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