Monday, 16 January 2012 10:12 |
अरविंद मोहन जनसत्ता 16 जनवरी, 2012: बाबू सिंह कुशवाहा बसपा के विभीषण हैं या नहीं और क्या विनय कटियार विभीषण का चरित्र ऐसा ही मानते हैं, यह सवाल भाजपा नेताओं ने नहीं उठाया, पर इस प्रकरण ने उत्तर प्रदेश ही नहीं, मुल्क की राजनीति में एक नई शुरुआत कर दी है। इसी शुरुआत का एक छोर डीपी यादव को सपा में लेने से अखिलेश यादव का इनकार करना है तो समूह अण्णा का अपनी भ्रष्टाचार-विरोधी मुहिम की पूरी दिशा ही बदल देना है। अगर अखिलेश को एक मजबूत और पैसे वाले यादव नेता को अपनी पार्टी में लेना महंगा सौदा और इस सवाल पर मोहन सिंह जैसे वरिष्ठ नेता की अनदेखी करना भी सस्ता सौदा लगा तो अण्णा समूह को भी सिर्फ कांग्रेस-विरोध की सीमा दिखने लगी। इसलिए भाजपा नेतृत्व एकदम घबरा गया। अनुशासन और संबंधों का हवाला देकर उमा भारती को खुला विरोध करने से रोका गया, पर बात ज्यादा बनी नहीं। फिर बाबू सिंह कुशवाहा का जनाधार होने, उनकी बिरादरी का बड़ा वोट बैंक होने, उनके द्वारा मायावती शासन की पोल खोलने और बसपा को नुकसान पहुंचाने जैसे किसी तर्क ने ज्यादा लाभ नहीं किया, जबकि सामान्य ढंग से इनमें से एक भी मुद्दा किसी को दल में लेने के लिए पर्याप्त माना जाता है। फिर खुद कुशवाहा से बयान दिलवाए गए और चुनाव नहीं लड़ाने की घोषणा की गई। भाजपा के अंदर की नाराजगी तो भ्रष्टाचार का मुद्दा हाथ से छिन जाने के चलते थी। आखिर आडवाणी ने इस उम्र में इतनी लंबी यात्रा किसलिए निकाली थी! फिर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांगेस को घेरने के लिए भाजपा ने अपने एक जनाधार वाले मुख्यमंत्री येदियुरप्पा की बलि चढ़ा दी। वह अण्णा आंदोलन का पूरा लाभ पाने का सपना देख रही थी। पर एक झटके में सारा कुछ बदल गया। उसे सबसे बड़ा झटका यह लगा कि किरीट सोमैया ने बडेÞ जतन से मायावती शासन को घेरने का जो मुद््दा खड़ा किया था उसे पार्टी के स्थानीय नेताओं ने अध्यक्ष जी की सहमति से ही पलीता लगा दिया। किरीट सोमैया की पूरी कोशिश बाबू सिंह कुशवाहा के भी बसपा सरकार के कार्यकाल में हुई लूट में शामिल होने के आधार पर टिका था। सीबीआई ने भी मजे लेने के अंदाज में कुशवाहा के भाजपा में जाने के अगले दिन साठ से ज्यादा ठिकानों पर छापे मार कर राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन घोटाले की धूम-धड़ाके भरी जांच शुरू कर दी। हद यह हो गई कि इस मामले में काफी सारे आरोपियों को तो गिरफ्तार कर लिया गया, पर कुशवाहा को गिरफ्तार करके भाजपा को सांस लेने का अवसर नहीं दिया गया। अगर वे गिरफ्तार भी हो गए होते तो भाजपा उसी नाम पर गंगा नहा लेती। बेचारे सोमैया की सारी मेहनत धरी रह गई। भाजपा जिस एक तीर से कांग्रेस और बसपा-सपा को निशाना बनाना चाहती थी उसे कटियार-सूर्य प्रताप शाही-नितिन गडकरी ने अपनी ही तरफ मोड़ लिया और दूसरों को हमला करने का हथियार भी दे दिया है। ये मसले इसलिए भी बडेÞ बन गए कि मीडिया ने इन्हें बड़ा करके दिखाया। अण्णा आंदोलन के बाद वह भी भाजपा नेताओं से अप्रिय सवाल पूछे बगैर नहीं रह सकता था। मीडिया के सवालों का जवाब देना भाजपा नेताओं के लिए आसान न था। एक चैनल पर तो किरीट सोमैया लगभग रो पड़े थे। भाजपा के प्रवक्ता चैनलों की चर्चा में आने से बचते रहे। और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने बदनाम छवि वाले डीपी यादव को पार्टी में लेने से इनकार करके भाजपा की परेशानियां और बढ़ा दीं। डीपी यादव को पार्टी में लेने के लिए महासचिव आजम खान ने हां कह दिया था। अखिलेश ने पार्टी का मतभेद उजागर होने का डर छोड़ कर जो फैसला किया उसकी तारीफ हुई। असल में उन्हें पता है कि पार्टी की पुरानी छवि अब भी काफी लोगों को सपा को वोट देने से रोक रही है। अब सपा की पुरानी छवि से लोगों की परेशानी और उसके प्रति अखिलेश यादव का सचेत होना ही नहीं, कुशवाहा कांड भी यही बताता है कि पिछले चुनाव और इस बार के चुनाव बीच नदियों में जाने कितना पानी बह जाने की सच्चाई ही घटित नहीं हुई है, लोगों के अंदर भी बदलाव हुआ है और वे सवाल पूछने लगे हैं। तभी सभी दलों को मुश्किल भी होनी शुरू हुई है। लोग जात-बिरादरी भूले नहीं हैं, पर वह उन्हें सर्वोपरि महत्त्व की बात नहीं लगती। मायावती की कार्रवाई की चपेट में आए मंत्री शहीद दिखना चाहते हैं। उनका माल-मत्ता भी चुनावी गणित की एक सच्चाई है, पर अब कुछ सवाल इनसे भी ऊपर आ गए हैं। इसके कई कारण दिख सकते हैं। पर सबसे बड़ा कारण तो अण्णा आंदोलन ही नजर आता है, जिसने आम जन से लेकर मीडिया तक को कुछ हिसाब रखना सिखा दिया है। गड़बड़ तभी हो सकती है, जब आंदोलनकारी और हम-आप इस चीज को भूल कर छोटे स्वार्थों के चक्कर में फिर से वही गलतियां करना शुरू कर दें जिनसे भ्रष्टाचार करने वालों को मौका मिल जाता है। उम्मीद करनी चाहिए कि समाज का यह पैमाना और मजबूत होगा। |
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