कुमार प्रशांत जनसत्ता 24 जनवरी, 2012 : उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की आज तक की राजनीति इतनी ही रही है कि हर संभव ताकतों की दुरभिसंधि से अपनी सत्ता को मजबूत बनाया जाए। इस चुनाव के बाद वे मुख्यमंत्री बनें या दूसरा कोई बने, उत्तर प्रदेश की राजनीति इससे भी अधिक रसातल की तरफ जाएगी, क्योंकि मायावती इसे जिस खाई में पहुंचा चुकी हैं, वहां से इसे निकाल लाना तो बड़ी दूर की कौड़ी है, इसे वहीं रोक कर रखना भी बहुत कठिन है। राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बना कर, किसी नई दिशा की खोज करने की सोच भी नहीं रहे हैं। नई दिशा और आज की कांग्रेस का कोई रिश्ता नहीं है। राहुल जो चाह रहे हैं वह सिर्फ इतना है कि जब उत्तर प्रदेश में सत्ता की छीना-झपटी मचेगी तब वे ऐसी स्थिति में हों कि बड़ा हिस्सा ले सकें। मुलायम सिंह यादव भी इसी गणित से चल रहे हैं कि कुछ ऐसी स्थिति बने कि वे और कांग्रेस मिल कर वहां सरकार बना सकें। ऐसा समीकरण दिल्ली की सरकार के लिए भी बहुत सुविधाजनक होगा। ऐसे सारे गणित का एक ही परिणाम हो सकता था और वह यह कि जितने भी गर्हित तत्त्व मैदान में हैं उनमें से ज्यादा से ज्यादा को अपने साथ लिया जाए। मायावती ने अपने यहां से जिन-जिन को निकाला वे सभी वे हैं जिन्हें सरकार चलाने के लिए मायावती जितना निचोड़ सकती थीं, निचोड़ चुकी थीं। अब सवाल चुनाव का था और चुनाव में ये पार्टी के लिए बोझ बन सकते थे। यह समझ कर इन्हें किनारे कर दिया! इन्हें निकालने से मिलने वाला फायदा जब पूरा हो जाएगा तब इन्हें साथ लेने का हिसाब-किताब लगाया जाएगा और आप देखेंगे कि इनमें से अधिकतर इसी ताल में तैरते नजर आएंगे। अण्णा हजारे के आंदोलन ने इतना तो कर ही दिया है कि आज कोई भी राजनीतिक दल खुलेआम न तो भ्रष्टाचारियों को साथ ले सकता है और न उनकी वकालत कर सकता है। लेकिन सभी जानते हैं कि इन मूल्यविहीन तत्त्वों की ताकत के बिना सरकार और पार्टी चलाई भी नहीं जा सकती। बाबू सिंह कुशवाहा के सवाल पर तो सबने बड़ी चिल्ल-पों की और राहुल गांधी ने खुलासा किया कि कुशवाहा कांग्रेस के दरवाजे पर भी आए थे, लेकिन हमने दरवाजा नहीं खोला! ऐसा कह कर अपनी नैतिकता की ऊंचाई बताने वाले राहुल गांधी यह बताना भूल गए कि रशीद मसूद किस तर्क से पार्टी में लिए गए, और दूसरे दर्जे के कई दल-बदलू कैसे राहुल-दल में दाखिल किए गए। दिग्विजय सिंह ही बताएं कि भारतीय राजनीति में अजित सिंह की क्या पहचान है- पूछे कोई कि चुनाव से ठीक पहले उन्हें मंत्री बनाने के पीछे जो राजनीतिक पतन है क्या वह बाबू सिंह कुशवाहा को भाजपा में लेने से कम है? और पूछना तो अजित सिंह से भी चाहिए कि क्या उनका मंत्री बनना ही काफी बड़ी राजनीतिक अवसरवादिता नहीं थी कि उन्होंने अपने बाहुबल के प्रताप भर के लिए जाने जाने वाले राणा बंधुओं को साथ ले लिया? मुलायम सिंह की हालत भी अत्यंत दयनीय है। अब नेताजी न पुराने नेताजी रह गए हैं और उनकी पार्टी पुरानी सपा रह गई है। उन्हें बाबू अमर सिंह ने जो राह दिखाई थी, वह राह भी बंद हो चुकी है। अब हालत ऐसी है कि उनकी राजनीति सिमट कर इसी पर केंद्रित हो गई है कि अखिलेश यादव को कैसे पार्टी में सर्व-मान्यता हासिल हो जाए! उनकी इस कमजोरी को समझ कर उन्हें सभी दबा रहे हैं, चाहे मोहन सिंह हों या आजम खान। आप देखेंगे कि अखिलेश यादव सपा के राहुल गांधी बनते जा रहे हैं; मोहन सिंह, अमर सिंह बनना चाहते हैं और आजम खान बेनीप्रसाद वर्मा की जगह लेना चाहते हैं। इनमें से किसी के भी पास मुलायम सिंह जैसा जाति-आधार नहीं है। इसी कमी को पूरा करने में ये सब लगे हैं। डीपी यादव को पार्टी में लाने की योजना के पीछे यही रणनीति थी कि इस पत्ते से वे यादव-प्रभाव का मुकाबला करेंगे। उत्तर प्रदेश की राजनीति में धनबल और अपराध-बल का जैसा गठबंधन है उसके सबसे उम्दा प्रतीक-पुरुष हैं डीपी यादव। अखिलेश यादव ने इस कोशिश को रद्द कर दिया, क्योंकि उन्हें अंदाजा है कि कमजोर पड़ते जा रहे मुलायम सिंह के सामने डीपी यादव खडेÞ हो सकते हैं और आगे अखिलेश के लिए परेशानी का सबब बन सकते हैं। लेकिन डीपी यादव का संदर्भ लेकर जब कोई ऐसा बताने की कोशिश करता है कि अखिलेश यादव अपराधी-तत्त्वों से अपनी पार्टी को दूर रखना चाहते हैं तब उनसे पूछना चाहिए कि राजा भैया, शाहिद सिद्दीकी, गुड््डू पंडित जैसों को सपा में लेने के पीछे क्या सोच रहा? ये सभी अपनी-अपनी जगह पर, अपनी-अपनी तरह के डीपी यादव ही तो हैं! हां, एक फर्क है शायद कि ये सभी बडेÞ-छोटे, दोनों नेताजी के सामने आसानी से खडेÞ नहीं होंगे। अयोध्या वाली राजनीति ने उसे कितना खोखला बना दिया है, इसे देखना हो तो मायावती द्वारा निकाले गए बाबू सिंह कुशवाहा और दूसरे छुटभैयों के भाजपा-प्रवेश से ही मत देखिए, इससे भी देखिए कि भाजपा के पास आज उत्तर प्रदेश में बचा क्या है। राजनाथ सिंह बचे हैं जो अपने बेटे को जेल में बंद बाहुबली धनंजय सिंह से तालमेल बिठाने के लिए भेजते हैं। दूसरी तरफ भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी हैं, जो येनकेनप्रकारेण अध्यक्षता की दूसरी पारी खेलना चाहते हैं और इसलिए पार्टी में उन सारे तत्त्वों को वापस खींच रहे हैं जो दिल्ली वाले नेताओं की बिरादरी से हलकान हुए थे। उमा भारती इनमें से एक हैं। कुशवाहा और उनके सफरमैना भी इसी कारण भाजपा में लाए गए हैं। गडकरी ऐसा करके पार्टी को उस धरातल से अलग ले जा रहे हैं जिस पर अटल-आडवाणी ने इसे स्थापित किया था। अटल बिहारी वाजपेयी हमेशा से भाग्यवान रहे हैं। जब-जब स्थितियां अनुकूल रहीं, वे मंच पर रहे। जब सितारे प्रतिकूल हुए, उसे आडवाणी को संभालना पड़ा है। आज अपनी उम्र और स्वास्थ्य के कारण अटल बिहारी तस्वीरों में ही दिखते हैं। भले उनका फोटो छाप कर भाजपा मतदाताओं के पास जा रही है, लेकिन वाजपेयी को अब न उन मतदाताओं की सुध है और न मतदाताओं को उस फोटो की याद है! आडवाणी की स्थिति सबसे दयनीय है। वे पार्टी में कभी भी नैतिक राजनीति के पैरोकार नहीं रहे। वे हमेशा अवसरवादी राजनीति के खिलाड़ी रहे हैं जिसमें माना जाता है कि जो फलदायी है, वही नैतिक है। आज जब गडकरी मंडली भी उसी राह पर चलना चाह रही है और दोनों की फलदायी की परिभाषा में अंतर पड़ रहा है तो सारा खेल गड़बड़ा रहा है। जो नैतिक है वही फलदायी है, यह सच भारतीय राजनीति में आज सिरे से अमान्य है। इसलिए भाजपा का कुल गणित यह है कि उत्तर प्रदेश में उसकी सरकार तो बनने नहीं जा रही है, और न वह स्वाभाविक रूप से सपा या कांग्रेस के साथ गठबंधन कर सकती है। मायावती उसे साथ ले सकती हैं, यह सपना अभी न मायावती देखती हैं न गडकरी! इसलिए भाजपा सभी किस्म के तत्त्वों को जोड़ कर चुनाव से इतना ही निकालना चाह रही है कि वह खेल-बिगाड़ू वाली स्थिति बना सके। उत्तर प्रदेश में वह ऐसी ताकत भी बना ले कि जो अस्थिरता पैदा कर सके तो यह उसकी बड़ी उपलब्धि होगी। ऐसा करने के लिए कितनी सीटें जीतीं इसका नहीं, इसका हिसाब करना ठीक होगा कि विधानसभा के भीतर और बाहर आपके साथ कैसी शक्तियां जुड़ी हई हैं। भाजपा बस यही करने में लगी है। संघ परिवार के आका इस राजनीतिक सचाई को समझ रहे हैं और इसलिए बड़ी अर्थपूर्ण चुप्पी साधे हुए हैं। इस पूरे आकलन से जो तस्वीर बनती है क्या उसमें आपको कोई किसी से ज्यादा सफेद दिखाई दे रहा है? भारतीय राजनीति का आज का सच यही है। यही सच है जो लोकपाल पर हुई बहस के दौरान लोकसभा और राज्यसभा में दिखाई पड़ा था और आज उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव की कुंडली में भी दिखाई पड़ रहा है। अण्णा हजारे और उनके साथियों का हिसाब यहीं आकर गड़बड़ाया। वे यह समझ बैठे थे कि कांग्रेस सत्ता में है तो सत्ता खोने का उसे सबसे अधिक डर होगा और इसी डर को दवाब में बदल कर वे अपना जन लोकपाल बनवा लेंगे। उन्हें ऐसा लगा था कि जन लोकपाल बनना कोई तकनीकी सवाल है जिसे सिर्फ नारों और भीड़ के दबाव से हल किया जा सकता है। अण्णा आंदोलन के पीछे थोड़ा वामपंथी रुझान रखने वाले, दक्षिणपंथी सोच से जुडेÞ और थोड़ा उदारवादी रुख रखने वाले लोगों का नेतृत्व है। उसने भी बहुत हद तक रास्ता वही अपनाया कि जिससे फायदा मिलता हो, उसे साथ ले लो। इसलिए बाबा रामदेव से लेकर श्री श्री रविशंकर तक और कांग्रेस के विरोधी राजनीतिक दलों तक उसकी दौड़ चलती रही। उसके नारे, बैनर, पोस्टर सभी ऐसा ही सोच दर्शाते रहे। लोकसभा और राज्यसभा में उसका भ्रम टूटा और मुंबई में वह धरातल पर उतरा! सुधारना और बदलना, दो अलग-अलग काम हैं जो दो अलग-अलग रणनीति से चलाए जाते हैं। महात्मा गांधी ने इन दोनों को एक साथ चलाने का अद्भुत प्रयोग किया। लेकिन यह कतई जरूरी नहीं कि अण्णा आंदोलन या दूसरा कोई भी आंदोलन गांधी की इसी रणनीति का अनुसरण करे। जरूरी यह है कि वह अपनी भूमिका निर्धारित करे, उसकी मर्यादाएं समझे और उसी आधार पर अपने कदम तय करे। मुंबई के बाद अण्णा आंदोलन ने अपनी जो भूमिका बनाई है, डर है कि वह उसे अधिक भटकाएगी। लेकिन हम इसे चुनाव के बाद, अलग से जांचने की कोशिश करेंगे। अभी तो सुधार और बदलाव चाहने वाली दोनों ताकतें उत्तर प्रदेश चुनाव के आईने में अपनी सूरत देखें और कहीं यह भी हिसाब करें कि सत्ता में जो भी आएगा, उसके साथ सुधार और बदलाव का एजेंडा कैसे तय किया जाएगा। |
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