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स्त्रियों के पास विकल्‍प जैसा कुछ भी नहीं होता!

स्त्रियों के पास विकल्‍प जैसा कुछ भी नहीं होता!



15 DECEMBER 2011 13 COMMENTS
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♦ प्रकाश कुमार रे

शिकस्ता मकबरों पे टूटती रातों को इक लड़की लिये हाथों में बरबत जो घूमे कुछ गुनगुनाती है
कहा करते हैं चरवाहे कि जब रुकते हैं गीत उसके तो इक ताजा लहद से चीख की आवाज आती है…

(अताउल्लाह खान की द्वारा गायी गयी गजल 'न हरम में, न कलीसा में' के एक संस्करण से…)

उसके प्रेम-चुबन थे मुंदी आंखोंवाले
जो आंखें खुलने पर
दिखे कि खेले गये थे वे 'स्पॉटलाइटों' तले जो
बुझायी जा चुकी हैं
और कमरे की दोनों दीवारें (वह एक 'सेट' था) हटायी जा रही हैं…

(अर्नेस्तो कार्देनाल की कविता 'मेरिलिन मुनरो के लिए प्रार्थना' से, सोमदत्त द्वारा अनुदित)


जिन दिनों हिंदुस्तान के अखबारों और टेलीविजन चैनलों पर 'द डर्टी पिक्चर' के ट्रेलर, गाने, तस्वीरें और संबंधित खबरें छायी हुई थीं, ठीक उन्हीं दिनों मिस्र की राजधानी काहिरा की एक लड़की अपनी नग्न तस्वीरें ब्लॉग पर डालकर खबरों में थी। हिंदुस्तान में फिल्म के गाने 'ऊ ला ला ला' और विद्या बालन के 'ऊम्फ' को लेकर 'उत्तेजक वॉव' का माहौल था, जो फिल्म के रिलीज होते-होते अतिरेकी-उत्सवी स्खलन में बदल गया। लेकिन काहिरा में स्थिति बिल्कुल उलट थी। समाज सन्न था। बीस साल की आलिया महदी की तस्वीरों में सरकार और समाज के स्त्रियों के प्रति दोगले नजरिये के विरुद्ध अपने शरीर पर अपने अधिकार की खुली घोषणा थी। इस घोषणा ने धार्मिक कट्टरपंथियों और सैनिक शासन को तो परेशान किया ही, उदारवादी और स्वतंत्रतावादी भी सकते में थे। किसी को भी इस लड़की का यह रवैया रास नहीं आ रहा था। कट्टरपंथी खेमे और उदारवादी खेमे के दो विपरीत ध्रुवों से आयी एक-सी प्रतिक्रियाएं पुरुष की दृष्टि से रचे गये स्त्री-विमर्श की सीमाओं को एक बार फिर रेखांकित कर गयीं।

हमारे यहां 'सिल्क' थी, जिसके कपड़े बार-बार उतारे गये और बार-बार चखा गया उसका 'ऊम्फ'। पुरुष के लिए यह बहुत मायने की बात नहीं थी कि वह जीवित है या मर गयी (या मारी गयी)। सिल्क वह अप्सरा थी/है, जो उस पौराणिक कथा में भी नाची थी…

कथा कुछ यूं है…

षि-मुनियों के लिए इंद्र के दरबार में विशेष नृत्य का आयोजन था। नृत्य धीरे-धीरे ऋषि-मुनियों के दिलो-दिमाग पर हावी हो रहा था। किसी कोने से आवाज आयी – आभूषण उतारो। अप्सरा ने नाचते-नाचते आभूषण उतार दिये। कुछ देर बाद दूसरे कोने से आवाज आयी – वस्त्र उतारो। अप्सरा ने आदेश/आग्रह का पालन किया। रात के तीसरे पहर किसी तंग गली के डांस बार और सात-सितारा होटल के डिस्कोथेक का माहौल देवलोक के उस कक्ष में तारी था। उत्तेजक उन्माद में ऋषि-मुनि दर्शन और अध्यात्म के अध्याय भूल चुके थे या यों कहें कि इनमें हवस का भी एक परिशिष्ट जोड़ रहे थे। अब आवाजें जल्दी-जल्दी आने लगी थीं – और उतारो, और उतारो, थोड़ा और… अब वह बिल्कुल नग्न थी। उत्तेजना चरम पर थी। सहोदराना ब्रह्मानंद का वातावरण था। तभी आवाज आयी – यह चमड़े का आवरण भी उतारो। अप्सरा ने ऐसा ही किया (उसके पास और कोई विकल्प भी न था)। स्त्रियों के पास विकल्प जैसा कुछ नहीं होता जबकि पूरा विश्व है पुरुष के जीतने के लिए, पूरी वसुंधरा है उसे भोगने के लिए। बस उसे कुछ बेड़ियां छोड़नी है और थोड़ी वीरता दिखानी है। हालांकि आजतक नहीं जीता जा सका विश्व और न ही भोगी गयी वसुंधरा। हर बार जीती गयी स्त्री। हर बार उसे ही भोगा गया।

कितनी ही बार सिनेमा में और असल जिंदगी में दोहरायी गयी देवलोक के दरबार की वह रात। लेकिन इस बार तो गजब हो गया। हद की हर हद लांघी गयी। मन नहीं भरा पुरुष का सिल्क के अनगिनत संस्करणों से, उसकी फिल्मों से, उसके वीडियो से, उसकी तस्वीरों वाले स्क्रीन-सेवरों से। वह उसकी लाश खोद लाया बरसों पुरानी कब्र से और फिर उसे कहा गया वही सब करने को, जिसे करते हुए वह मरी (या मारी गयी)। तब उसे देवदासी बनाया गया, अप्सरा बनाया गया, उसे बनाया गया वेश्या। उसे फिर यही सब बनाया गया लेकिन पुरुष की चालाकी ने इस बार उसे बना दिया ग्लेडिएटर – पुरुष की मर्दानगी को ठेंगा दिखाती सिल्क। लेकिन यह स्त्री-मुक्ति का मामला नहीं था। पुरुष की यौन-संतुष्टि का एक और तरीका था, फेटिश था। कुछ उसी तरह जैसे WWF में लड़ती हैं स्त्रियां। कई बार पुरुष को अपने अंदर की स्त्रैण-प्रवृत्ति को छुपाने के लिए कुछ ऐसे पैंतरे देने होते हैं, जो ऊपर से बड़े निर्दोष या विप्लवी लगें। सिल्क के संवाद वही हैं, जो पुरुष न जाने कब-से बोलता आया है। अब सिल्क बोलती है। पुरुष को मजा आता है। उस मजे को वह प्रगतिशीलता या स्त्री-विमर्श का जामा पहनता है ताकि उसकी कुंठा की नंगई छुप सके। पुरुष रोल-प्ले खेलता है। अपने होमोफोबिया को तुष्ट करता है।

लेकिन यह तो पुरुष न जाने कब से करता आया है। उसके द्वारा रचे गये सभ्यता के ढोंग उसके लैंगिक-पुंस्त्व की चिंता के विस्तार ही तो थे और हैं। 'द डर्टी पिक्चर' इस विस्तार को और वीभत्स बनाती है। अब तक पुरुष पुरुष होने की ग्रंथि से पीड़ित था, अब वह नेक्रोफिलिया का रोगी है। चिंता तब बढ़ जाती है, जब यह रोग सामूहिक हो जाता है। 'फैशन' में उसे थोड़ा संकोच था। तब उसने मरती हुई स्त्री की आत्मा को एक जीवित स्त्री के भीतर प्रविष्ट करा दिया था लेकिन यहां वह बिल्कुल बेशर्म है। वह लाश को कब्र से खोदता है, उसे जीवित करता है और रेट्रो मोड में उसे उसका जीवन फिर से जीने को कहता है और फिर उसे मार देता है। अपनी कुंठा के सामने बलि देकर उसे संतोष नहीं मिलता। उसकी लाश के इर्द-गिर्द वह सामूहिक और सार्वजनिक रूप से भौंड़ा नृत्य करता है (वैसे पुरुष सिर्फ भौंड़ा ही नाच सकता है)।

फिर कोई पढ़ता है किसी कोने में बरसों पहले मुनरो के लिए की गयी प्रार्थना…

फिल्म अंतिम चुबन के बिना खत्म हो गयी
उन्हें मिली वह मरी, फोन हाथ में लिये,

परमेश्वर, चाहे जो कोई हो
जिससे वह करना चाहती थी बात
लेकिन नहीं की (और शायद वह कोई न था
या कोई ऐसा जिसका नाम न था लॉस एंजलस डायरेक्टरी में)
परमेश्वर, तुम उठा लो वह टेलीफोन

(प्रकाश कुमार रे। सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता के साथ ही पत्रकारिता और फिल्म निर्माण में सक्रिय। दूरदर्शन, यूएनआई और इंडिया टीवी में काम किया। फिलहाल जेएनयू से फिल्म पर रिसर्च। उनसे pkray11@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)

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