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Wednesday, January 18, 2012

कट्टरपंथियों के आगे हमेशा की तरह सुस्‍त पड़ी सरकार

कट्टरपंथियों के आगे हमेशा की तरह सुस्‍त पड़ी सरकार



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कट्टरपंथियों के आगे हमेशा की तरह सुस्‍त पड़ी सरकार

18 JANUARY 2012 ONE COMMENT
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♦ कौशल किशोर

लमान रुश्‍दी जयपुर साहित्य उत्सव 2012 में भाग नहीं लेंगे। जयपुर साहित्य उत्सव की वेबसाइट पर 20 से 24 जनवरी तक चलने वाले इस समारोह का जो कार्यक्रम जारी किया गया है, उसमें सलमान रुश्‍दी का नाम नहीं है। साहित्य उत्सव द्वारा इस आयोजन को विविध कलाओं के प्रदर्शन, बहसों व विचार-विमर्श का मंच बनाने की जो कोशिश की जा रही थी, उसे रुश्‍दी के न आने से झटका लगा है क्योंकि इसकी वजह से आयोजन खासा चर्चा में था। रुश्‍दी को आमंत्रित कर उत्सव के आयोजकों ने जिस साहस का परिचय दिया था, राजस्थान की सरकार ने उस पर तुषारापात कर दिया है।

जब से सलमान रुश्‍दी के जयपुर साहित्य उत्सव 2012 में भाग लेने की खबर आयी, तब से इसका विरोध हो रहा था। दारुल उलूम देवबंद, मुस्लिम संगठनों तथा कट्टरतावादियों द्वारा लगातार विरोध हो रहा था। उनके द्वारा मांग की जा रही थी कि सरकार उनके वीजा को रद्द कर दे। जबकि रुश्‍दी भारतीय मूल के लेखक हैं और उन पर इस तरह की कोई पाबंदी नहीं लगायी जा सकती है। सहित्य उत्सव के आयोजकों पर इस बात का दबाव था कि वे रुश्‍दी को अपने कार्यक्रम में शामिल न करें। सरकार के स्तर पर खूब खिचड़ी पक रही थी। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलौत इस संबंध में केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद से भी मिले और सलाह मशविरा किया। भले ही इस बाबत सरकार कह रही है कि रुश्‍दी का कार्यक्रम में शामिल होना या न होना आयोजकों व स्वयं रुश्‍दी पर निर्भर करता है लेकिन सच्चाई यही है कि राजस्थान सरकार का दबाव मुख्य कारक था। सरकार द्वारा बार-बार कानून व व्यवस्था की बात की जा रही है। रुश्‍दी की सुरक्षा का सवाल उठाया जा रहा है।

उल्लेखनीय है कि सलमान रुश्‍दी 2007 के जयपुर साहित्य उत्सव में भी आये थे। उस वक्त भी धार्मिक कट्टरपंथियों की ओर से विरोध किया गया था और सरकार के लिए 'कानून व व्यवस्था' की समस्या थी। लेकिन उस वक्त राजस्थान सरकार द्वारा रुश्‍दी को सुरक्षा प्रदान की गयी। पर इस बार सरकार कट्टरपंथियों के आगे झुकती नजर आयी। माना जा रहा है कि इसके पीछे पाच राज्यों में होने वाला चुनाव है। रुश्‍दी को आने देने से मुस्लिम मतदाताओं के बीच कांग्रेस के विरुद्ध नाराजगी बढ़ती। इसका प्रतिकूल असर कंग्रेस पर पड़ सकता था। इसलिए कांग्रेस सरकार कोई खतरा मोल लेने को तैयार नहीं दिखी। उसने यही बेहतर समझा कि कट्टरवादियों का मुकाबला करने की जगह 'सुरक्षा' व 'कानून व व्यवस्था' के नाम पर रुश्‍दी को जयपुर साहित्य उत्सव में आने ही नहीं दिया जाए।

1947 में मुंबई में जन्मे सलमान रुश्‍दी अपने दूसरे उपन्यास 'मिड नाइट्स चिल्ड्रेन' से पश्चिम के साहित्य जगत में चर्चा में आये। 1981 में इसे बुकर सम्मान मिला। बाद में 1993 में इस उपन्यास को 'बुकर ऑफ बुकर्स' का सम्मान भी मिला। 1988 में उनका चर्चित व विवादास्पद उपन्यास 'द सेटेनिक वर्सेसष्‍ आया। मुस्लिम बाहुल्य देशों में इस उपन्यास का भारी विरोध हुआ। हिंसात्मक प्रदर्शन हुए। इस उपन्यास को रखने वाले किताब घरों को आग के हवाले किया गया। इसकी प्रतियों की होली जलायी गयी। भारत उन देशों में अग्रणी रहा, जहां इस उपन्यास को प्रतिबंधित किया गया। ईरान के तत्कालीन नेता आयतुल्ला खुमेनी ने 14 फरवरी 1989 को रुश्‍दी के खिलाफ 'तौहीन-ए-इस्लाम' का आरोप लगाकर जान से मार देने का फतवा जारी किया। इसकी वजह से रुश्‍दी को कई साल तक भूमिगत भी रहना पड़ा। बाद में ईरान की सरकार ने उस फतवे पर रोक लगा दी थी।

किसी की भी सलमान रुश्‍दी के विचारों, उनके उपन्यास की विषय-वस्तु व दृष्टिकोण से असहमति हो सकती है। उनका विरोध हो सकता है। सवाल है कि ऐसे विरोध का तरीका क्या हो? क्या यह तरीका जायज है, जो कट्टरपंथी अपनाते हैं। लेखक को बोलने न दिया जाए। उसे अपने विचारों को प्रकट न करने दिया जाए। उस पर शारीरिक हमले किये जाएं। उसे जीने के अधिकार से वंचित कर दिया जाए। कहा जाता है कि इन लेखकों के विचारों से समुदाय विशेष की भावना व आस्था पर चोट पड़ती है। ऐसा देखा जाता है कि जहां सोचने-समझने की शक्ति भावना व आस्था तक सीमित हो जाती है, वहां तर्क, विवेक, ज्ञान व बुद्धि के किवाड़ बंद हो जाते हैं। धार्मिक कट्टरतावादी विचारों के साथ ऐसा ही होता है। सवाल है कि क्या कोई लोकतांत्रकि समाज अपने को आस्था व भावना तक सीमित करके लोकतांत्रकि बना रह सकता है?

यदि चुनाव का होना व सार्विक मताधिकार लोकतंत्र के लिए जरूरी है, वहीं आधुनिक विचार, अवधारणा व संस्कृति इसकी आत्मा है। इसी अर्थ में लोकतंत्र एक आधुनिक व्यवस्था है। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि हमारे लोकतंत्र में उन विचारों व मूल्यों को आज संरक्षति किया जा रहा है, जो मध्ययुगीन है। राजनीति और सरकार द्वारा इसे बढ़ावा दिया जा रहा है। यहां 'गणेशजी की पत्थर की मूर्ति दूध पी जाती है' या 'सोये सोये आदमी पत्थर हो जाता है' जैसे अंधविश्‍वासों को मीडिया व अन्य माध्यमों द्वारा प्रचारित किया जाता है। ऐसे ही अंधविश्‍वास, पाखंड, धार्मिक रुढ़ियां आदि कट्टरता को खाद पानी देती हैं। सत्ता की राजनीति भी अपने निहित स्वार्थ के लिए कट्टरता को तुष्‍ट या पुष्‍ट करती है। सरकार चाहे रुश्‍दी की सुरक्षा को आधार बनाये या कानून व व्यवस्था को, पर सच्चाई यही है कि सलमान रुश्‍दी के संबंध में हम सरकार को कट्टरता के आगे समर्पण करते हुए देखते हैं।

(कौशल किशोर। सुरेमनपुर, बलिया, यूपी में जन्‍म। जनसंस्‍कृति मंच, यूपी के संयोजक। 1970 से आज तक हिन्दी की सभी प्रमुख पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन। रेगुलर ब्‍लॉगर, यूआरएल हैkishorkaushal.blogspot.com। उनसे kaushalsil.2008@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)


संघर्ष »

[17 Jan 2012 | One Comment | ]

आशुतोष कुमार ♦ अंग्रेजी विकीपीडिया कल से गुल हो रही है। सोपा और पिपा नामक प्रस्तावित अमरीकी विधेयकों के खिलाफ। ये विधेयक नेट-स्वराज के खिलाफ खतरनाक विश्वव्यापी हमले का आगाज हैं। इस हमलावर मुहिम में हमारी अपनी (?) सरकार भी 'बन-संवर कर' पहले ही शामिल हो गयी है। इन हमलों की अभी मुखालफत करना बेहद बेहद जरूरी है।

बात मुलाक़ातमोहल्ला दिल्लीशब्‍द संगत »

[17 Jan 2012 | 6 Comments | ]

अरविंद दास ♦ स्पिक मैके यह एक ऐसा आंदोलन बन गया है, जो अब किसी परिचय का मोहताज नहीं है। पर स्पिक मैके की वेबसाइट पर जब आप नजर डालेंगे, तो आज भी वहां किरण सेठ की 'चर्चा' या उनका 'परिचय' शायद ही कहीं मिले! पेशे से शिक्षक किरण सेठ एक निष्काम योगी की तरह हैं, जो भारतीय संगीत और संस्कृति का अलख युवाओं के बीच जगाये हुए अपने काम में मस्त हैं।

असहमतिनज़रियासंघर्ष »

[16 Jan 2012 | 5 Comments | ]

अनीश ♦ जो भीड़ से आह्लादित होते हैं, वही भीड़ नहीं होने पर निराश भी होते हैं। अन्‍ना और उनकी टीम को इससे बचना चाहिए। यदि वो भ्रष्‍टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम के प्रति संजीदा हैं। लोकपाल पर अपनी सारी ऊर्जा केंद्रित कर उन्‍होंने व्‍यवस्‍था को अपने खिलाफ एक अस्‍त्र दे दिया। राजनीतिक अपरिपक्‍वता ने उन्‍हें पीछे धकेल दिया।

मोहल्ला पटनाशब्‍द संगतसंघर्षस्‍मृति »

[14 Jan 2012 | 5 Comments | ]

अरुण कमल ♦ प्रेमचंद रंगशाला की मुक्ति के लिए उन्होंने लाठियां खायीं, उनके सिर पर चोट आयी और काफी खून बहा। इप्टा की महान, गौरवशाली परंपरा के अनुरूप ही यह सब हुआ। कन्हैया जी के लिए आदर्शों की हिफाजत ज्यादा जरूरी थी, आंदोलन का अबाध चलना ज्यादा जरूरी था। कन्हैया जी उन थोड़े से लोगों में हैं जिनसे सीखने के लिए बहुत कुछ था और है।

मोहल्ला भोपालशब्‍द संगत »

[13 Jan 2012 | One Comment | ]

डॉ कलानाथ मिश्र ♦ आधुनिक संस्कृति ने भारतीय समाज की बुनियाद को गहरे प्रभावित किया है, जिसे कथाकार हरीश पाठक की कहानियों में देखा जा सकता है। ये कहना है जानी मानी कथा लेखिका चित्रा मुद्गल का। चर्चित कथाकार एवं पत्रकार हरीश पाठक के कथा-संकलन 'सोलह कहानियां' का लोकार्पण करते हुए उन्होंने ये बातें कहीं।

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