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मुफ्त नहीं खटने पर मार डाला, लाश को गांव में घुमाया

मुफ्त नहीं खटने पर मार डाला, लाश को गांव में घुमाया



मुफ्त नहीं खटने पर मार डाला, लाश को गांव में घुमाया

29 APRIL 2011 18 COMMENTS

यूपी में एक लोमहर्षक घटना हुई है और इस पर अखिल भारतीय शोर मचना चाहिए। मुज़फ्फरनगर के निरगजनी गांव में एक दलित ने बेगारी खटने यानी मुफ्त में काम करने से मना कर दिया, तो उसकी हत्‍या कर दी गयी और साइकिल पर लादकर उसकी लाश को पूरे गांव में घुमाया गया। ताकि फिर कोई दलित बेगारी खटने से मना करने का साहस न करे। अखबारों ने इस घटना को कोई तवज्‍जो नहीं दी है। एक मेल टुडे ने 28 अप्रैल के अंक में इसे छापा है, लेकिन इस पूरे मामले को इस संदर्भ के साथ उछाला है कि यूपी में दलित की सरकार की सरकार होते हुए ऐसा हुआ। गोया मरने वाला दलित न होता, तो ये एक आम घटना होती। बहरहाल इस घटना को सरकार के आईने में देखने से बेहतर है कि इसे सामाजिक संदर्भों में देखें। बंधुआ मजदूरी, बेगारी कानूनन जुर्म है लेकिन कानून की सुनता कौन है? हर जगह खाप वाले मौजूद हैं। हमारी आधी सदी के लोकतंत्र में भी जाति का जहर मारक बना हुआ है। खैर, आप मेल टुडे की खबर पर नजर डालें और अपना प्रति‍रोध दर्ज करें : मॉडरेटर

Dalit killed and body paraded in Maya's UP

By Piyush Srivastava in Lucknow


GRUESOME: Karamchand's (inset) body was recovered from a canal in the village

THE WICKED and bloodsoaked feudal system of poor Dalits working for the rich upper caste — and getting tortured and killed if they refuse — is very much alive in Uttar Pradesh's underbelly.

The Dalit villagers of Nirgajani in Uttar Pradesh's Muzaffarnagar district were reminded on Monday about the dreadful " begari system" — working in the fields of the affluent without wages.

Affluent villagers shot dead Karamchand ( 42) and took out a gruesome procession of his body on a bicycle to intimidate and remind poor Dalits about their fate if they refused to work in the fields of the rich.

After their macabre dance of death, they threw his body into a canal.

They also assaulted Karamchand's son Monu when he tried to save his father.

All this took place under the Bhopa police station and in a state where the chief minister, Mayawati, takes pride in her Dalit antecedents.

The killers escaped from the village when Monu was admitted to the district government hospital and a case was registered by the police.

Karamchand and Monu were working in their own field when Amresh, Dhanpal and Ramesh Singh, all landed Jats belonging to the same family, reached the area along with over 10 people and demanded they stop work immediately to help them in harvesting wheat.

The Dalit farmer had earlier raised his voice against begari too.

" My father had refused them earlier because they didn't pay him anything for earlier work. They had declared that we would have to follow their order or leave the village," Monu said.

When Karamchand put his foot down and refused to work, the trio attacked him.

Desperate to escape, he climbed the roof of a temple in the village. But Amresh, a hardened criminal, according to the police, fired at him, causing his death.

" They hauled his dead body on to a bicycle and took out a procession. They were shouting that anyone who defied their order would be killed," Monu said, recalling the horrifying moments.

" I pleaded with them to give me the body of my husband," Rajesh Kumari, Karamchand's wife said. " But they kept laughing." Karamchand's body was later found in a canal by the police.

Unable to make him bend to their will, the Jats had found other ways of harassing him. " The rich people had taken over a part of our land.

They were angry with my husband for the last 10 years for protesting against begari.

I had begged my husband to stop making enemies of them," Kumari said.

Muzaffarnagar SP K. B. Singh said Karamchand's body had been fished out of the canal and sent for post mortem.

" According to our initial investigation, he was shot dead when he refused to follow the orders of some criminals in the village. All the killers belong to the same family. While five persons have been arrested, 12 are still absconding," he said.

VICIOUS SYSTEM OF BONDED LABOUR

Begar or begari was a widely prevalent system of bonded labour in rural India in the medieval period. It could be compulsory or forced labour at a very low wage, or free menial labour.

This included carting heavy luggage for rich people or working in the fields of powerful villagers at the cost of neglecting one's own crops.

It was abolished by the government of India in 1976.


असहमतिसंघर्ष »

[10 Nov 2011 | 6 Comments | ]

कैलाश दहिया ♦ एक आग्रह हमारे विद्यार्थियों से भी है कि वे दलित-विमर्श को ठीक से जानें-समझें। वे महिषासुर जैसे व्यर्थ के कामों में अपनी एनर्जी न लगाएं। वे बलात्कारी को सजा के लिए अभियान चलाएं और जारकर्म के खिलाफ आंदोलन खड़ा कर दें, क्योंकि जारकर्म की द्विज परंपरा की वजह से ही देश ढाई हजार सालों से गुलाम रहा है।

नज़रिया »

[14 Oct 2011 | 28 Comments | ]

राकेश कुशवाहा ♦ दलित विमर्श के नाम पर मुख्य रूप से ब्राह्मणों तथा अन्य सवर्ण जातियों को गाली देना, अपनी भड़ास निकालना और उन्माद का माहौल पैदा करना, यही सब हो रहा है। दलित चाहते हैं कि जातिवाद न हो, सवर्ण भी यही चाहते हैं। हर कोई कहता है कि जाति कोई मुद्दा ही न हो, इसे समाज के अवचेतन से मिटा दिया जाए। अगर ऐसा हो गया तो नौकरी से लेकर शिक्षा तक जो सुविधा की मलाई है, उससे दलितों का बड़ा वर्ग वंचित रह जाएगा।

नज़रिया »

[8 Jun 2011 | 22 Comments | ]

आशीष कुमार अंशु ♦ सवाल बहुत सारे हैं, वैसे क्या आप नहीं मानेंगे कि आरक्षण की लड़ाई को मुकाम तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाने वालों में दलित समाज के साथ-साथ गैर दलित समाज के लोग भी कंधे से कंधा मिला कर चले थे। इस तरह कोई दलित समाज की चिंता करने वाला व्यक्ति कैसे हर गैर दलित व्यक्ति की मंशा पर सवाल उठा सकते हैं?

नज़रियामीडिया मंडी »

[29 Apr 2011 | 18 Comments | ]

डेस्‍क ♦ यूपी में एक दलित ने बेगारी खटने यानी मुफ्त में काम करने से मना कर दिया, तो उसकी हत्‍या कर दी गयी और साइकिल पर लादकर उसकी लाश को पूरे गांव में घुमाया गया। ताकि फिर कोई दलित बेगारी खटने से मना करने का साहस न करे। अखबारों ने इस घटना को कोई तवज्‍जो नहीं दी है। एक मेल टुडे ने 28 अप्रैल के अंक में इसे छापा है, लेकिन इस पूरे मामले को इस संदर्भ के साथ उछाला है कि यूपी में दलित की सरकार की सरकार होते हुए ऐसा हुआ। गोया मरने वाला दलित न होता, तो ये एक आम घटना होती। बहरहाल इस घटना को सरकार के आईने में देखने से बेहतर है कि इसे सामाजिक संदर्भों में देखें। बंधुआ मजदूरी, बेगारी कानूनन जुर्म है लेकिन कानून की सुनता कौन है? हर जगह खाप वाले मौजूद हैं।

नज़रियामोहल्ला लखनऊ »

[26 Apr 2011 | 13 Comments | ]

कौशल किशोर ♦ तीन दिनों तक चले इस नाट्य समारोह में दर्शकों की भागीदारी और प्रस्तुति की श्रेष्ठता का दबाव ही था कि लखनऊ के अधिकांश अखबारों द्वारा इस समारोह की उपेक्षा नहीं की जा सकी। भले ही इसकी रिपोर्ट छापने के साथ अपनी ओर से उन्होंने आयोजन पर सवाल करते हुए कुछ टिप्पणियां भी प्रकाशित की। इस मामले में अंग्रेजी दैनिक 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के लखनऊ संस्करण की भूमिका गौरतलब है। इस अखबार ने नाटकों की कथावस्तु, निर्देशन, अभिनय, संगीत आदि विविध पक्षों पर एक शब्द नहीं लिखा तथा कोई रिपोर्ट या समीक्षा प्रकाशित नहीं की। बेशक अखबार के रिपोर्टर ने इस नाट्य समारोह को 'स्टेजिंग ए नेम गेम' शीर्षक से एक बड़ी-सी खबर जरूर प्रकाशित की। इसे खबर कहना उचित नहीं होगा क्योंकि यह मात्र लखनऊ के कुछ कलाकारों का दलित नाट्य समारोह का विरोध था।

शब्‍द संगत »

[2 Dec 2010 | 14 Comments | ]
एक दलित लेखक के सच को गल्‍प मानने का नामवरी हठ

दिलीप मंडल ♦ एक तरफ तो लेखक यह कह रहे हैं कि मैंने अपना और समाज का यथार्थ इसमें रखा है, लेकिन आलोचक और महान लोग इसमें कुछ और ही ढूंढ निकालते हैं। रामशरण जोशी, राजेंद्र यादव और खासकर नामवर सिंह इस बात पर अड़े रहे कि नहीं, यह आत्मकथा नहीं है। यह तो "कथाकृति" है। एक "उपन्यास" है, "सर्जनात्मक कृति" है, "वर्णनात्मक कृति" है। सब कुछ है लेकिन वास्तविक जीवन कथा नहीं है। साथ में यह सलाह भी दी कि दलितों की रचनाएं ऐसी ही होनी चाहिए, जिसमें स्थितियों के प्रति गुस्सा न हो। तुलसी राम को जोशी जी, यादव जी और सिंह जी इस बात के लिए मुबारकबाद देते हैं कि उनकी रचना में किसी के प्रति क्रोध नहीं है, स्थितियों के प्रति गुस्सा नहीं हैं।

मोहल्ला दिल्लीशब्‍द संगत »

[19 Aug 2010 | 3 Comments | ]

मिथिलेश कुमार ♦ हमारे देश में दो तरह की संस्कृति है। एक सत्ता संस्कृति और दूसरी शोषित संस्कृति। सत्ता संस्कृति में देश के नेता और नौकरशाह हैं जबकि शोषित संस्कृति में देश के किसान, मजदूर, कामगार हैं। अगर बारीकी से चीजों को समझें तो वास्तव में देश को शोषित संस्कृति ने ही बचाया है क्योंकि वह अनाज उगाता है, कारखानों में काम करता है, मैला साफ करता है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के सामाजिक विज्ञान संस्थान में आयोजित एक परिचर्चा में दलित चिंतक ओमप्रकाश वाल्मीकि ने ये विचार व्यक्त किये। वे सूरज बड़त्या की शोध पुस्तक "सत्ता संस्कृति और दलित सौंदर्यशास्त्र" के लोकार्पण अवसर पर बोल रहे थे। उन्होंने कहा, जीवन का सरोकार ही दलित कविताओं का केंद्रीय भाव है।

मोहल्ला पटनाविश्‍वविद्यालयशब्‍द संगत »

[7 Aug 2010 | 9 Comments | ]
विभूति, कालिया को बचाने में सक्रिय है सवर्ण शक्तियों का नैक्सस

राकेश साह ♦ विभूति नारायण राय प्रकरण की जो आंधी चली है, उसकी नींव में कई लोगों की सहभागिता नजर आ रही है। यह प्रसंग बहुत सारी जनवादी और प्रगतिशील सवर्ण शक्तियों के नैक्सस को भी सामने ला रही है। सचमुच यह घोर अवसरपरस्त समय हो चला है, जहां लंपटता को ग्लैमराइज किया जा रहा है। कभी किसी ने कल्पना नही की होगी कि ज्ञानपीठ जैसा संगठन इस तरह की तुच्छताओं और क्षुद्रताओं के महिमांडन का मंच बनेगा। लेकिन यह सब धड़ल्ले से हो रहा है और पूरा हिंदी समाज विभूति और कालिया जैसे लंपटों की लंपटगीरी को सिर-आंखों पर बिठाये हुए है। अपने बिहार की बात कहूं तो पटना में जन संस्‍कृति मंच और प्रगतिशील लेखक संघ की कुंठाएं जगजाहिर हैं।

विश्‍वविद्यालयशब्‍द संगत »

[7 Aug 2010 | 14 Comments | ]
मुद्दे को डाइल्यूट कौन कर रहा है?

अनिता भारती ♦ क्या दलितों के पास इतनी ताकत है कि वे किसी मुद्दे को भटका सकें? अगर वे इतने ताकतवर होते, तो क्या पिछले डेढ़-दो साल से लगातार वर्धा विश्वविद्यालय में दलित छात्रों को निशाना बनाने वाले वीसी वीएन राय को बर्खास्त न करा चुके होते? डेढ़-दो साल से लगातार धरना-प्रदर्शन करके, सिर मुंडवा कर इच्छा मृत्यु की मांग करके भी वे वीएन राय का बाल बांका न कर पाये। और तो और, अब महिलाओं को बेइज्जत करने वाले प्रसंग में विरोध अभियान में सबसे आगे रहने के माद्दे के साथ लेखिकाओं के प्रतिनिधिमंडल में जाकर और आज ज्ञानपीठ के सामने धरना-प्रदर्शन में शामिल होकर भी ज्ञापन में वे वर्तमान वीसी वीएन राय के स्त्री विरोधी विशेषणों में, मात्र एक शब्द "जातिवादी" तक नहीं जुड़वा पाये।

असहमतिनज़रियामीडिया मंडी »

[5 Jul 2010 | 7 Comments | ]
अंग्रेजी मीडिया के कुएं में भांग पड़ी है!

दिलीप मंडल ♦ शाहूजी महाराज के कार्यों और उपलब्धियों के बारे में स्कूल में पढ़ायी जाने वाली किताबें में कितना कुछ लिखा है, यह शोध का विषय है। अगर स्कूलों में शाहूजी महाराज के बारे में पढ़ाया जाता है, तो इंग्लिश के अखबारों और वेबसाइट के पत्रकारों ने जो किया है, वह अक्षम्य है। और यदि स्कूल की किताबों में शाहूजी महाराज के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है या नाम मात्र का लिखा है, तो इतिहास की किताबों के पुनर्लेखन की जरूरत है। देश के सबसे प्रतिष्ठित और नामी अखबार और उनकी साइट अगर शिवाजी के वंशज को दलित नेता या दलित प्रतीक (dalit icon) कहें तो इसे मामूली भूल कैसे कहा जा सकता है। वैसे भी भारत में किसी दलित के महाराजा होने की कल्पना कर पाने के लिए ढेर सारी कल्पनाशीलता की जरूरत होगी।

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