लिए लाइसेंस जारी किया जाता है। यह प्रक्रिया प्रत्येक चरण के पूरा हो जाने के बाद दोहराई जाती है।
यहां यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि किसी भी परमाणु संयंत्र को शुरुआती चरण में काम करने की स्थिति में आने से पहले ही एक लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। सबसे पहले परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड की निगरानी में शुरुआती परीक्षण किए जाते हैं और उसके बाद संचालक को परमाणु संयंत्र में र्इंधन भरने की इजाजत दी जाती है। इस प्रक्रिया में लगभग छह महीने का समय लगता है। इसके बाद परमाणु र्इंधन के विखंडन की प्रक्रिया शुरू होती है। जब विखंडन की प्रक्रिया धीरे-धीरे खत्म होने की ओर बढ़ रही होती है, तब संयंत्र से सही मायनों में कम शक्ति के साथ काम लेना शुरू किया जाता है। इस अवधि में भी लगातार संयंत्र के काम करने के तरीके और बचाव के तरीकों पर नजर रखी जाती है। इस चरण में अगर संयंत्र ठीक काम कर रहा होता है और उसमें किसी भी प्रकार की तकनीकी खामी नहीं दिखती, तब परमाणु संयंत्र से पूरी क्षमता से काम लेना शुरू किया जाता है। तीन महीने से अधिक अवधि तक संयंत्र के प्रदर्शन पर नजर रखी जाती है और पूरी तरह संतुष्ट हो जाने के बाद ही इसे शुरुआती पांच वर्षों के लिए लाइसेंस दिया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया से यह भी स्पष्ट होता है कि परमाणु संयंत्र के काम करने की स्थिति में आने से पहले की अवधि में विखंडन के दौरान खतरनाक रेडियोसक्रिय विकिरणों के लीक होने की संभावना बराबर बनी रहती है।
साफ है कि परमाणु संयंत्र को लाइसेंस मिलने की स्थिति में आने से पहले की अवधि में हुई किसी दुर्घटना की क्षतिपूर्ति के लिए विधेयक में कोई प्रावधान नहीं है। इस तरह नियम-24 द्वारा क्षतिपूर्ति के लिए तय अधिकतम पांच वर्ष की सीमा आपूर्तिकर्ताओं को उनके उत्तरदायित्व से आजाद करने का प्रयास भर है। तकरीबन यही बात नियम-24 में लिखित उत्पाद-दायित्व अवधि के बारे में भी सच है। उत्पाद-दायित्व अवधि वास्तव में वह अवधि है जिसके भीतर आपूर्तिकर्ता देशों को उनके द्वारा आपूर्ति किए गए किसी उत्पाद में खामी होने की वजह से उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
आदर्श रूप में इस अवधि की गणना की शुरुआत परमाणु संयंत्र को लाइसेंस मिलने के बाद होनी चाहिए, लेकिन आपूर्तिकर्ता संयंत्र को लाइसेंस मिलने से पहले की अवधि से ही उत्पाद दायित्व अवधि की गणना शुरू कर देते हैं। अक्सर ऐसा होता है कि संयंत्र को लाइसेंस मिलने की स्थिति आने तक उत्पाद-दायित्व अवधि खत्म हो जाती है। ऐसी स्थिति में लाइसेंस मिलने के बाद अगर किसी उत्पाद में कोई खामी नजर आती है तो उसके लिए आपूर्तिकर्ता अपने उत्तरदायित्व से पूरी तरह मुक्त हो जाते हैं।
साफ है कि नियम-24 के क्रियान्वयन का उद्देश्य बहुत चालाकी और गुपचुप तरीके से आपूर्तिकर्ता देशों को उनके उत्तरदायित्व से मुक्त करना है। ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह कहना कि भारत नागरिक परमाणु दायित्व के सभी मुद्दों पर अपने कानूनी दायरों के भीतर रह कर ही काम करेगा, एक तरह का राजनीतिक कपट ही है।
पिछले वर्ष विधेयक के बहुत-से प्रावधानों पर विभिन्न राजनीतिक दलों ने आपत्ति की थी। इसके बाद संसद में इसे व्यापक बहस के बाद और कुछ संशोधनों के साथ पारित किया गया था। नए जारी नियम-24 की व्याख्या से यह बात एक बार फिर साबित हुई है कि वर्तमान सरकार संसद की मर्जी को ताक पर रख कर आपूर्तिकर्ता देशों के हितों को ज्यादा तरजीह दे रही है। भारत के संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में संभवत: पहली बार कोई सरकार संसद की उपेक्षा कर ऐसे जोखिम भरे निर्णय ले रही है। एटमी आपूर्तिकर्ता देशों के दबाव के चलते संसदीय निर्णय की उपेक्षा का यह पहला मामला नहीं है। यह बात और भी ज्यादा खतरनाक इसलिए हो जाती है, क्योंकि आपूर्तिकर्ता देशों को राहत पहुंचाने का यह काम गुपचुप तरह से कागजों पर किया जा रहा है।
दरअसल, जिन नवउदारवादी नीतियों का सहारा लेकर आर्थिक विकास का झंडा बुलंद किया गया था वे अब संसदीय लोकतंत्र की चालक सीट पर सवार हैं। इसी का नतीजा है कि एक लोकतांत्रिक बहस के परिणामस्वरूप निकले संसदीय निर्णय को धता बता कर आगे बढ़ना वर्तमान सरकार की राजनीतिक मजबूरी हो गई है। अमेरिका, रूस और फ्रांस जैसे देशों के परमाणु-व्यापार को दुबारा जिलाने की कोशिश में वर्तमान सरकार के प्रतिनिधियों को लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ जाकर काम करना पड़ रहा है।
ऐसा भी लगता है कि मंदी की मार से सकपकाई अमेरिका जैसी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था परमाणु व्यापार के जरिए अपने विस्तार की जो नई संभावनाएं तलाश रही है उसमें भारत सरकार बढ़-चढ़ कर उसकी मदद कर रही है। इसमें संसदीय मूल्यों से समझौता करने में भी उसे कोई हर्ज नहीं दिखता। दोस्ती का फर्ज शायद ऐसे ही निभाया जाता है।
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