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Monday, January 9, 2012

परमाणु दायित्व का दायरा

परमाणु दायित्व का दायरा


अभिनव श्रीवास्तव 
जनसत्ता 4 जनवरी, 2012 : पिछले दिनों भारत के तीन दिवसीय दौरे पर आए अमेरिका के उप विदेशमंत्री विलियम बर्न्स और भारत के विदेश सचिव रंजन मथाई, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन के बीच हुई बातचीत में दोनों देश नागरिक परमाणु समझौते के पूर्ण क्रियान्वयन पर सहमत हुए। इसी बातचीत में बर्न्स ने यह भी कहा कि नागरिक परमाणु विधेयक-2010 के अंतर्गत बनाए गए नियमों पर अमेरिका और अधिक स्पष्टता चाहता है क्योंकि स्पष्टता के अभाव के चलते ही अमेरिकी कंपनियां भारत में परमाणु संयंत्र स्थापित करने की योजनाओं को टाल रही हैं।      
दोनों देशों के बीच हुई इस बातचीत की रोशनी में नागरिक परमाणु विधेयक-2010 के क्रियान्वयन के लिए अधिसूचित नियमों की गहरी पड़ताल करने की भी जरूरत महसूस होती है, जो कि पिछले महीने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ मनमोहन सिंह की बाली में हुई मुलाकात से एक दिन पहले जारी किए गए थे। 
हालांकि बाली रवाना होने से पहले प्रधानमंत्री ने यह कह कर सकारात्मक संकेत देने की कोशिश की थी कि भारत नागरिक परमाणु दायित्व से संबंधित सभी मुद््दों पर अमेरिकी आपूर्तिकर्ताओं के दबाव में आकर कोई कानूनी फेरबदल नहीं करेगा। लेकिन इस विधेयक के क्रियान्वयन के लिए जारी अधिसूचित नियम भारत के कानूनी मानदंडों को ही सिर के बल खड़ा करते हैं।   
नागरिक परमाणु विधेयक-2010 की धारा सत्रह अमेरिका, फ्रांस और रूस जैसे आपूर्तिकर्ता देशों के लिए शुरुआत से ही परेशानी का सबब बनी हुई थीं। इसका कारण यह था कि विधेयक की धारा सत्रह की उपधारा 17(बी) में परमाणु संयंत्र के संचालक को यह अधिकार दिया गया था कि अनुबंध के तहत उपकरणों का दायित्व लेने वाले आपूर्तिकर्ता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से खराब सेवाएं देते हैं तो उनसे क्षतिपूर्ति की मांग की जा सकती है। 
परमाणु संयंत्र संचालकों को इस तरह का अधिकार देने का उद्देश्य आपूर्तिकर्ताओं को ज्यादा उत्तरदायी बनाना था। धारा 17(बी) के प्रावधानों का अमेरिका, फ्रांस और रूस जैसे आपूर्तिकर्ता देशों ने बहुत विरोध किया था, क्योंकि इस धारा के प्रावधान अंतरराष्ट्र्रीय संधि (कन्वेंशन फॉर सप्लीमेंट्री कंपेनसेशन) के प्रावधानों से मेल नहीं खाते थे। वास्तव में इस संधि के प्रावधान आपूर्तिकर्ता देशों को कम उत्तरदायी बनाने की वकालत करते हैं। मसलन, इस संधि में एक प्रावधान यह है कि क्षतिपूर्ति के लिए दावाकर्ता सिर्फ अपने देश में मुकदमा कर सकेगा। दुर्घटना की स्थिति में उसे किसी अन्य देश की अदालत में जाने का कोई अधिकार नहीं होगा। 
पिछले वर्ष संसद में विभिन्न राजनीतिक दलों के साथ व्यापक चर्चा के बाद यह तय किया गया था कि परमाणु दुर्घटनाओं के पीड़ितों को ज्यादा से ज्यादा सुरक्षा प्रदान करने के लिए धारा सत्रह को ज्यों का त्यों बनाया रखा जाएगा और अंतरराष्ट्रीय संधि 'कन्वेंशन फॉर सप्लीमेंट्री कंपनसेशन' के प्रावधानों से मेल नहीं खाने के बावजूद धारा 17(बी) प्रावधानों के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जाएगी।    
नागरिक परमाणु विधेयक के क्रियान्वयन के लिए अधिसूचित नियम-24 धारा-17 को कमजोर बना कर आपूर्तिकर्ता देशों को उनके उत्तरदायित्व से मुक्त कराने का प्रयास करता नजर आता है। नियम-24 के मुताबिक, परमाणु संचालक की देयता की हद (सीमा) या संचालक और आपूर्तिकर्ता के बीच अनुबंध की राशि में जो भी कम होगी, केवल उस राशि के लिए क्षतिपूर्ति का दावा किया जा सकेगा। 
अगर यह मान लें कि किसी दुर्घटना की स्थिति में परमाणु संचालक को दुर्घटना से पीड़ित लोगों को क्षतिपूर्ति में करोड़ों रुपए का भुगतान करना है और संचालक और आपूर्तिकर्ता के बीच हुए अनुबंध की कीमत महज एक लाख रुपए है तो आपूतिकर्ता एक लाख रुपए देकर बहुत आसानी से अपना पल्ला झाड़ लेगा। आपूर्तिकर्ता देश इसी नियम के जरिए अनुबंध की किसी भी बड़ी राशि को छोटे-छोटे हिस्सों में तोड़ कर आसानी से क्षतिपूर्ति की राशि अदा कर सकते हैं।
नियम-24 एक और तरीके से आपूर्तिकर्ता देशों को कम उत्तरदायी बना रहा है। यह नियम उस अवधि की सीमा को भी कम करता है जिसके जरिए आपूर्तिकर्ता से क्षतिपूर्ति की मांग की जा सकती है। संचालक और आपूर्तिकर्ता के बीच हुए अनुबंध में शामिल उत्पाद-दायित्व अवधि या परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड की नियमावली-2004 के नियमानुसार संयंत्र के लिए जारी प्रारंभिक लाइसेंस की अवधि में जो भी ज्यादा होगी उसी के भीतर क्षतिपूर्ति की मांग की जा सकेगी। 
परमाणु ऊर्जा नियमावली-2004 के नियम-9 में यह लिखा है कि विशेष रूप से उल्लेख न होने की स्थिति में प्रारंभिक लाइसेंस की अवधि पांच वर्ष होगी। इस तरह सैद्धांतिक रूप से प्रारंभिक लाइसेंस की अवधि पांच वर्ष से ज्यादा भी हो सकती है और कम भी, लेकिन सामान्यत: यह अवधि पांच वर्ष की होती है। परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड द्वारा किसी परमाणु संयंत्र को शुरुआती चरण में पांच वर्ष का ही लाइसेंस दिया जाता है और फिर पहला चरण पूरा हो जाने पर परमाणु संयंत्र की गहन जांच-पड़ताल के बाद अगले पांच वर्षों के


लिए लाइसेंस जारी किया जाता है। यह प्रक्रिया प्रत्येक चरण के पूरा हो जाने के बाद दोहराई जाती है।
यहां यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि किसी भी परमाणु संयंत्र को शुरुआती चरण में काम करने की स्थिति में आने से पहले ही एक लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। सबसे पहले परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड की निगरानी में शुरुआती परीक्षण किए   जाते हैं और उसके बाद संचालक को परमाणु संयंत्र में र्इंधन भरने की इजाजत दी जाती है। इस प्रक्रिया में लगभग छह महीने का समय लगता है। इसके बाद परमाणु र्इंधन के विखंडन की प्रक्रिया शुरू होती है। जब विखंडन की प्रक्रिया धीरे-धीरे खत्म होने की ओर बढ़ रही होती है, तब संयंत्र से सही मायनों में कम शक्ति के साथ काम लेना शुरू किया जाता है। इस अवधि में भी लगातार संयंत्र के काम करने के तरीके और बचाव के तरीकों पर नजर रखी जाती है। इस चरण में अगर संयंत्र ठीक काम कर रहा होता है और उसमें किसी भी प्रकार की तकनीकी खामी नहीं दिखती, तब परमाणु संयंत्र से पूरी क्षमता से काम लेना शुरू किया जाता है। तीन महीने से अधिक अवधि तक संयंत्र के प्रदर्शन पर नजर रखी जाती है और पूरी तरह संतुष्ट हो जाने के बाद ही इसे शुरुआती पांच वर्षों के लिए लाइसेंस दिया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया से यह भी स्पष्ट होता है कि परमाणु संयंत्र के काम करने की स्थिति में आने से पहले की अवधि में विखंडन के दौरान खतरनाक रेडियोसक्रिय विकिरणों के लीक होने की संभावना बराबर बनी रहती है।  
साफ है कि परमाणु संयंत्र को लाइसेंस मिलने की स्थिति में आने से पहले की अवधि में हुई किसी दुर्घटना की क्षतिपूर्ति के लिए विधेयक में कोई प्रावधान नहीं है। इस तरह नियम-24 द्वारा क्षतिपूर्ति के लिए तय अधिकतम पांच वर्ष की सीमा आपूर्तिकर्ताओं को उनके उत्तरदायित्व से आजाद करने का प्रयास भर है। तकरीबन यही बात नियम-24 में लिखित उत्पाद-दायित्व अवधि के बारे में भी सच है। उत्पाद-दायित्व अवधि वास्तव में वह अवधि है जिसके भीतर आपूर्तिकर्ता देशों को उनके द्वारा आपूर्ति किए गए किसी उत्पाद में खामी होने की वजह से उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। 
आदर्श रूप में इस अवधि की गणना की शुरुआत परमाणु संयंत्र को लाइसेंस मिलने के बाद होनी चाहिए, लेकिन आपूर्तिकर्ता संयंत्र को लाइसेंस मिलने से पहले की अवधि से ही उत्पाद दायित्व अवधि की गणना शुरू कर देते हैं। अक्सर ऐसा होता है कि संयंत्र को लाइसेंस मिलने की स्थिति आने तक उत्पाद-दायित्व अवधि खत्म हो जाती है। ऐसी स्थिति में लाइसेंस मिलने के बाद अगर किसी उत्पाद में कोई खामी नजर आती है तो उसके लिए आपूर्तिकर्ता अपने उत्तरदायित्व से पूरी तरह मुक्त हो जाते हैं। 
साफ है कि नियम-24 के क्रियान्वयन का उद्देश्य बहुत चालाकी और गुपचुप तरीके से आपूर्तिकर्ता देशों को उनके उत्तरदायित्व से मुक्त करना है। ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह कहना कि भारत नागरिक परमाणु दायित्व के सभी मुद्दों पर अपने कानूनी दायरों के भीतर रह कर ही काम करेगा, एक तरह का राजनीतिक कपट ही है। 
पिछले वर्ष विधेयक के बहुत-से प्रावधानों पर विभिन्न राजनीतिक दलों ने आपत्ति की थी। इसके बाद संसद में इसे व्यापक बहस के बाद और कुछ संशोधनों के साथ पारित किया गया था। नए जारी नियम-24 की व्याख्या से यह बात एक बार फिर साबित हुई है कि वर्तमान सरकार संसद की मर्जी को ताक पर रख कर आपूर्तिकर्ता देशों के हितों को ज्यादा तरजीह दे रही है। भारत के संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में संभवत: पहली बार कोई सरकार संसद की उपेक्षा कर ऐसे जोखिम भरे निर्णय ले रही है। एटमी आपूर्तिकर्ता देशों के दबाव के चलते संसदीय निर्णय की उपेक्षा का यह पहला मामला नहीं है। यह बात और भी ज्यादा खतरनाक इसलिए हो जाती है, क्योंकि आपूर्तिकर्ता देशों को राहत पहुंचाने का यह काम गुपचुप तरह से कागजों पर किया जा रहा है। 
दरअसल, जिन नवउदारवादी नीतियों का सहारा लेकर आर्थिक विकास का झंडा बुलंद किया गया था वे अब संसदीय लोकतंत्र की चालक सीट पर सवार हैं। इसी का नतीजा है कि एक लोकतांत्रिक बहस के परिणामस्वरूप निकले संसदीय निर्णय को धता बता कर आगे बढ़ना वर्तमान सरकार की राजनीतिक मजबूरी हो गई है। अमेरिका, रूस और फ्रांस जैसे देशों के परमाणु-व्यापार को दुबारा जिलाने की कोशिश में वर्तमान सरकार के प्रतिनिधियों को लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ जाकर काम करना पड़ रहा है। 
ऐसा भी लगता है कि मंदी की मार से सकपकाई अमेरिका जैसी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था परमाणु व्यापार के जरिए अपने विस्तार की जो नई संभावनाएं तलाश रही है उसमें भारत सरकार बढ़-चढ़ कर उसकी मदद कर रही है। इसमें संसदीय मूल्यों से समझौता करने में भी उसे कोई हर्ज नहीं दिखता। दोस्ती का फर्ज शायद ऐसे ही निभाया जाता है।

 
 

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