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Monday, January 23, 2012

Articles tagged with: arundhati rai

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नज़रियासंघर्ष »

[18 Nov 2011 | 5 Comments | ]

अरुंधती राय ♦ 80 प्रतिशत से अधिक लोग 50 सेंट प्रतिदिन से कम पर गुजारा करते हैं; ढाई लाख किसान मौत के चक्रव्यूह में धकेले जाने के बाद आत्महत्या कर चुके हैं। हम इसे प्रगति कहते हैं, और अब अपने आप को एक महाशक्ति समझते हैं। आपकी ही तरह हम लोग भी सुशिक्षित हैं, हमारे पास परमाणु बम और अत्यंत अश्लील असमानता है।

नज़रियासंघर्ष »

[1 Sep 2011 | 19 Comments | ]

कौशल किशोर ♦ क्या वजह है कि प्रकाश करात से लेकर अरुंधती राय तक मात्र आलोचना से आगे नहीं बढ़ पाते? क्या इससे यह नहीं लगता कि आज आत्मालोचन इनके राजनीतिक व्यवहार की वस्तु नहीं रह गया है? यही कारण है कि आलोचना करते हुए ये कोई विकल्प नहीं पेश कर पा रहे हैं। इसीलिए यह मात्र 'आलोचना के लिए आलोचना' है।

नज़रियासंघर्ष »

[25 Aug 2011 | 6 Comments | ]

प्रणय कृष्‍ण ♦ देश भर में चल रहे तमाम जनांदोलनों को चाहे वह जैतापुर का हो, विस्थापन के खिलाफ हो, खनन माफिया और भू-अधिग्रहण के खिलाफ हो, पास्को जैसी मल्टीनेशनल के खिलाफ हो या इरोम शर्मिला का अनशन हो – इन सभी को अन्ना के आंदोलन के बरक्स खड़ा कर यह कहना कि अन्ना का आंदोलन मीडिया-कॉरपोरेट-एनजीओ गठजोड़ की करतूत है, और वास्तविक आंदोलन नहीं है, जनांदोलनों की प्रकृति के बारे में एक कमजर्फ दृष्टिकोण को दिखलाता है। अन्ना के आंदोलन में अच्छी खासी तादाद में वे लोग भी शरीक हैं, जो इन सभी आंदोलनों में शरीक रहे हैं।

नज़रियासंघर्ष »

[24 Aug 2011 | 4 Comments | ]

राहुल कुमार ♦ अरुंधति रॉय और केंद्रीय मंत्री वीरभद्र सिंह में क्या फर्क रह गया? वीरभद्र ने कहा कि दस हजार की भीड़ तो मदारी भी जुटा लेता है और अरुंधति ने कहा कि 74 साल के उस बुजुर्गवार का तमाशा देखने जुटे लोग जनता नहीं, बस दर्शक हैं। चलिए मान लिया कि रामलीला मैदान में जुटे सत्तर हजार लोग जनता का हिस्सा नहीं हैं, लेकिन जो मुंबई में जुहू से दादर तक खड़े हैं, जो आजाद मैदान में डटे हैं, जो देश के दूसरे शहरों में इस आंदोलन का हिस्सा बन रहे हैं, क्या वे भी तमाशबीन हैं?

नज़रिया »

[23 Aug 2011 | 12 Comments | ]

अरुंधती रॉय ♦ अन्ना की क्रांति का मंच और नाच, आक्रामक राष्ट्रवाद और झंडे लहराना सब कुछ आरक्षण विरोधी प्रदर्शनों, विश्व कप जीत के जुलूसों और परमाणु परीक्षण के जश्नों से उधार लिया हुआ है। वे हमें इशारा करते हैं कि अगर हमने अनशन का समर्थन नहीं किया तो हम 'सच्चे भारतीय' नहीं हैं। चौबीसों घंटे चलने वाले चैनलों ने तय कर लिया है कि देश भर में और कोई खबर दिखाये जाने लायक नहीं है।

नज़रियाबात मुलाक़ात »

[1 Jan 2011 | 9 Comments | ]
राष्‍ट्रविरोधी की परिभाषा ही भ्रष्‍ट हो चुकी है : अरुंधती

अरुंधती राय ♦ आप एक ऐसी अवस्था का निर्माण कर रहे हैं जिसमें राष्ट्रविरोधी की परिभाषा यह हो जाती है कि जो अधिक से अधिक लोगों की भलाई के लिए काम कर रहा है, यह अपने आप में विरोधाभासी और भ्रष्ट है। विनायक सेन जैसा आदमी जो सबसे गरीब लोगों के बीच काम करता है अपराधी हो जाता है, लेकिन न्यायपालिका, मीडिया तथा अन्यों की मदद से जनता के एक लाख 75 हजार करोड़ रुपये का घोटाला करने वालों का कुछ नहीं होता। वे अपने फार्म हाउसों में, अपने बीएमडब्ल्यू के साथ जी रहे हैं। इसलिए राष्ट्रविरोधी की परिभाषा ही अपने आप में भ्रष्ट हो चुकी है… जो कोई भी न्याय की बात कर रहा है, उसको माओवादी घोषित कर दिया जाता है। यह कौन तय करता है कि राष्ट्र के लिए क्या अच्छा है।

नज़रिया »

[27 Oct 2010 | 18 Comments | ]
ये मुल्‍क इंसाफ नहीं देता, जेल भेजने की धमकी देता है

अरुंधती रॉय ♦ अखबारों में कुछ लोगों ने मुझ पर नफरत फैलाने और भारत को तोड़ने का आरोप लगाया है। इसके उलट, मैंने जो कहा है, उसके पीछे प्यार और गर्व की भावना है। इसके पीछे यह इच्छा है कि लोग मारे न जाएं, उनका बलात्कार न हो, उन्हें कैद न किया जाए और उन्हें खुद को भारतीय कहने पर मजबूर करने के लिए उनके नाखून न उखाड़े जाएं। यह एक ऐसे समाज में रहने की चाहत से पैदा हुआ है, जो इंसाफ के लिए जद्दोजहद कर रहा हो। तरस आता है उस देश पर, जो लेखकों की आत्मा की आवाज को खामोश करता है। तरस आता है, उस देश पर जो इंसाफ की मांग करनेवालों को जेल भेजना चाहता है – जबकि सांप्रदायिक हत्यारे, जनसंहारों के अपराधी, कॉरपोरेट घोटालेबाज, लुटेरे, बलात्कारी और गरीबों के शिकारी खुले घूम रहे हैं।

नज़रिया »

[27 Oct 2010 | 30 Comments | ]
राष्‍ट्र अंतिम सत्‍य नहीं, इसलिए अरुंधती को सुनो

भूपेन सिंह ♦ अरुंधती की बातों का अलग विश्लेषण किया जाए तो वे राष्ट्र को किसी कट्टरपंथी नजरिये से देखने के बजाय उसे मानवाधिकार और न्याय से जोड़कर देखती हैं। समाजशास्त्रीय व्याख्याओं को ध्यान में रखते हुए राष्ट्र कोई अंतिम सत्य नहीं है। राष्ट्र हमेशा इंसानी कल्पनाओं की उपज होता है। उसे गढ़ते वक्त एक भाषा, नृजातीयता और संस्कृति को आधार बनाया जाता है और हमेशा एक तरह की समरूपता तलाशी जाती है या निर्मित करने की कोशिश की जाती है। अक्सर समाज का सबसे ताकतवर तबका ही 'राष्ट्र' की कल्पना करता है, जबकि दो जून की रोटी के लिए लड़ रहे गरीब इंसान के लिए 'राष्ट्र' के कोई मायने नहीं होते। उसे राष्ट्र की प्रभुत्ववादी परिभाषाओं को मानने के लिए हमेशा मजबूर किया जाता है।

नज़रियामोहल्ला रांची »

[26 Oct 2010 | 5 Comments | ]
संविधान से सरकार खेल रही है, माओवादी नहीं

अरुंधती रॉय ♦ गरीबों का निवाला छिना जा रहा है। उनकी जमीन, जल, जंगल सबकुछ छीने जा रहे हैं। इसके लिए सरकार ने दो लाख जवानों को लगा रखा है। एक सवाल था कि क्या लड़ाई गांधीवादी तरीके से नहीं लड़ी जा सकती? रॉय ने कहा, अब समय बदल गया है। वह दौर खत्म हो चुका है कि भूख हड़ताल से समस्या का समाधान होगा। जो खुद भूखे हैं, वह कैसे भूख हड़ताल करेंगे। अब तो लड़ाई दोतरफा है। कौन किस तरफ है या होगा, यह महत्वपूर्ण है। उन्होंने सरकार को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि सरकार असंवैधानिक तरीके से काम कर रही है। वह कानून का उल्लंघन कर आदिवासियों की जमीन छीन रही है, जबकि माओवादी संविधान की रक्षा कर रहे हैं। वे आदिवासियों के हक में लड़ रहे हैं। जल, जंगल, जमीन की रक्षा कर रहे हैं।

नज़रियामीडिया मंडी »

[4 Sep 2010 | 15 Comments | ]
हत्‍या के सभी मामलों में मीडिया को चीखना चाहिए

डेस्‍क ♦ बिहार के लखीसराय में माओवादियों ने अपने साथियों को छुड़ाने के एवज में तीन पुलिसकर्मियों को बंधक बना लिया। इनमें से एक की हत्‍या कर देने के बाद माओवादियों के अमानवीय किस्‍सों से पटी मीडिया की खबरों ने पूरे देश को हिला दिया। माओवादियों के इस कृत्‍य की चारों ओर निंदा हुई और हो रही है। ऐसे में लेखिका अरुंधती राय ने भी अपना बयान जारी किया है। अरुंधती के मुताबिक मीडिया की ओर से निंदा-बुलेटिन में बांट-बखरा नहीं होना चाहिए। मीडिया को फर्जी पुलिस मुठभेड़ में मारे जा रहे माओवादियों के बारे में भी ऐसी ही संवेदनशीलता से बातें करनी चाहिए।

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