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Wednesday, June 16, 2010

खबरों का ग्रीनहंट


मुद्दा
 

खबरों का ग्रीनहंट

अरुंधति राय

http://raviwar.com/news/338_operation-greenhunt-media-arundhati-roy.shtml
भारत सरकार एक ओर जब देश के गांवों में सेना और वायुसेना तैनात कर लोगों के संघर्ष को दबाने पर विचार कर रही है तो दूसरी ओर शहरों में कुछ विचित्र घटनाएं देखने में आ रही हैं.

arundhati roy in cdpr conference

 
बीते 2 जून को मैंने मुंबई में कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स (सीपीडीआर) द्वारा आयोजित एक जनसभा को संबोधित किया. अगले दिन तमाम अखबारों और टीवी चैनलों पर इसकी सही कवरेज हुई. इसी दिन पीटीआई ने मेरे अभिभाषण को बुरी तरह तोड़-मरोड़ कर एक खबर चलाई, जिसे सबसे पहले इंडियन एक्सप्रेस ने अपराह्न् 1.35 बजे ऑनलाइन पोस्ट किया. इसका शीर्षक था, 'अरुंधति ने किया माओवादियों का समर्थन, खुद को गिरफ्तार करने की चुनौती दी.' खबर की कुछ पंक्तियां देखें: 'लेखिका अरुंधति राय ने माओवादियों के सशस्त्र प्रतिरोध का समर्थन किया है और सरकार को चुनौती दी है कि वह इस समर्थन के लिए उन्हें गिरफ्तार कर के दिखाए.'

'नक्सल आंदोलन सशस्त्र संघर्ष के अलावा और किसी तरीके से संभव नहीं. मैं हिंसा का समर्थन नहीं कर रही, लेकिन मैं अपमानजनक उत्पीड़न पर टिके राजनीतिक विश्लेषण के भी खिलाफ हूं.'

'इसे सशस्त्र आंदोलन होना ही था. प्रतिरोध का गांधीवादी तरीका एक ऐसे समुदाय की मांग करता है, जो उसका साक्षी बन सके. वह यहां मौजूद नहीं. संघर्ष के इस तरीके को चुनने से पहले लोगों ने काफी विमर्श किया है.' राय, जिन्होंने माओवादियों द्वारा सीआरपीएफ और पुलिस के 76 जवानों की हत्या के बाद 'दंतेवाड़ा के लोगों' को सलामी दी थी, ने कहा, 'मैं बाड़ के इस ओर हूं. मुझे फर्क नहीं पड़ता.. आप मुझे जेल में डाल दें.'

मैं अपनी बात इस खबर के अंत से ही शुरू करती हूं. यह बात, कि मैंने माओवादियों द्वारा सीआरपीएफ और पुलिस के 76 जवानों की हत्या के बाद 'दंतेवाड़ा के लोगों' को सलामी दी थी, आपराधिक अवमानना का एक मामला है. मैंने साफ कर दिया था कि सीआरपीएफ के जवानों की मौत को मैं एक त्रासदी के रूप में देखती हूं और मैं मानती हूं कि वे गरीबों के खिलाफ अमीरों की लड़ाई में सिर्फ मोहरा हैं. मैंने मुंबई की बैठक में कहा था कि जैसे-जैसे यह संघर्ष आगे बढ़ रहा है, दोनों ओर से की जाने वाली हिंसा से कोई भी नैतिक संदेश निकालना असंभव सा हो गया है. मैंने साफ कर दिया था कि मैं वहां न तो सरकार और न ही माओवादियों द्वारा निदरेष लोगों की हत्या का बचाव करने के लिए आई हूं.

पीटीआई की रिपोर्ट का बाकी हिस्सा बैठक की कार्यवाही का एक सर्वथा मनगढ़ंत संस्करण भर था. मैंने कहा था कि जमीन की कॉरपोरेट लूट के खिलाफ लोगों का संघर्ष कई विचारधाराओं से संचालित आंदोलनों से बना है, जिनमें माओवादी सबसे ज्यादा मिलिटेंट हैं. मैंने कहा था कि सरकार हर किस्म के प्रतिरोध आंदोलन को, हर आंदोलनकारी को 'माओवादी' करार दे रही है ताकि उनसे दमनकारी तरीकों से निपटने को वैधता मिल सके. मैंने कलिंग नगर और जगतसिंहपुर के लोगों की ओर ध्यान आकर्षित किया, जो शांतिपूर्ण आंदोलन चला रहे हैं, लेकिन उन पर लाठियां और गोलियां बरसाई जा रही हैं. मैंने यह बताया था कि स्थानीय लोगों ने प्रतिरोध की रणनीति चुनने से पहले काफी विचार-विमर्श किया है. मैंने बताया था कि घने जंगलों में रह रहे लोग गांधीवादी संघर्ष के तरीके क्यों नहीं अपना सकते क्योंकि उसके लिए उनसे सहानुभूति रखने वाले समुदाय की भी जरूरत होती है. मैंने सवाल किया कि जो लोग पहले से ही भुखमरी का शिकार हैं, वे अनशन पर कैसे बैठ सकते हैं. मैंने कतई यह नहीं कहा कि 'इसे सशस्त्र आंदोलन होना ही था.'

मैंने कहा था कि आज तमाम मतभेदों के बावजूद जो भी आंदोलन चल रहे हैं, वे इस बात को समझते हैं कि उनका विरोधी एक ही है. इसीलिए वे बाड़ के एक ओर हैं और मैं उन्हीं के साथ खड़ी हूं. इसके बाद मैंने कहा कि भले ही प्रतिरोध का गांधीवादी तरीका उतना प्रभावी न रहा हो, लेकिन नर्मदा बचाओ आंदोलन जैसा 'विकास' का एक क्रांतिकारी और परिवर्तनकारी नजरिया फिर भी है. जबकि मुझे आशंका होती है कि प्रतिरोध का माओवादी तरीका भले ही प्रभावी हो, लेकिन वह कैसा 'विकास' चाहते हैं अभी स्पष्ट नहीं है. क्या उनकी खनन नीति राज्य की खनन नीति से भिन्न है? क्या वे बॉक्साइट को पहाड़ों में ही छोड़ देंगे या फिर सत्ता में आने पर उसे खोद निकालेंगे?
 

यह भी पढ़ें

एक दिन पुरानी पीटीआई की रिपोर्ट कई भाषाओं के अखबारों में छपी और 4 जून को टीवी चैनलों पर चली, जबकि इन अखबारों और चैनलों के रिपोर्टर खुद आयोजन को कवर करने आए थे और जानते थे कि पीटीआई की रिपोर्ट झूठी है. मुझे अचरज होता है कि आखिर क्यों अखबार और टीवी चैनल एक ही खबर को दो बार चलाएंगे- एक बार सही और दूसरी बार गलत!

4 तारीख की शाम करीब सात बजे मोटरसाइकिल सवार दो व्यक्ति मेरे दिल्ली स्थित निवास पर आए और उन्होंने पथराव किया. एक पत्थर तो एक बच्चे को लग ही गया था. लोग जब गुस्से में इकट्ठा हुए, तो वे भाग गए. कुछ ही मिनट के भीतर एक टाटा इंडिका वहां पहुंची. उसमें बैठा व्यक्ति जो खुद को जी न्यूज का रिपोर्टर बता रहा था, उसने पूछा कि क्या यह अरुंधति राय का घर है और यहां कुछ गड़बड़ हुई है क्या. जाहिर है, यह एक गढ़ा हुआ मामला था, 'जनाक्रोश' का नाटकीय प्रदर्शन, जिसकी टीवी चैनलों को तलाश रहती है. खुशकिस्मती से उस शाम यह नाटक नाकाम रहा. 5 जून को एक अखबार ने खबर लगाई, 'हिम्मत हो तो एसी कमरा छोड़ कर जंगल आए अरुंधति', जिसमें छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्वरंजन मुझे चुनौती दे रहे थे. छत्तीसगढ़ की ही एक भाजपा नेत्री पूनम चतुर्वेदी ने तो एक कदम आगे बढ़ कर प्रेस में घोषणा की कि मुझे चौराहे पर गोली मार दी जानी चाहिए.

क्या यह ऑपरेशन ग्रीनहंट का शहरी अवतार है, जिसमें भारत की प्रमुख समाचार एजेंसी उन लोगों के खिलाफ मामले बनाने में सरकार की मदद करती है जिनके खिलाफ कोई सबूत नहीं होते? क्या वह हमारे जैसे कुछ लोगों को वहशी भीड़ के सुपुर्द कर देना चाहती है, ताकि हमें मारने या गिरफ्तार करने का कलंक सरकार के सिर पर न आए. या फिर यह समाज में ध्रुवीकरण पैदा करने की साजिश है कि यदि आप 'हमारे' साथ नहीं हैं, तो माओवादी हैं.

26 जून को आपातकाल की 35वीं सालगिरह है. भारत के लोगों को शायद अब यह घोषणा कर ही देनी चाहिए कि देश आपातकाल की स्थिति में है (क्योंकि सरकार तो ऐसा करने से रही). इस बार सेंसरशिप ही इकलौती दिक्कत नहीं है. खबरों का लिखा जाना उससे कहीं ज्यादा गंभीर समस्या है.

12.06.2010, 10 .00 (GMT+05:30) पर प्रकाशित

 

इस समाचार / लेख पर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ

 
 

नितेश नंदा

 
 अरुंधति राय के आउटलुक में छपे लेख को पढिये और अब इस सफाई को पढिये. गलत और भ्रामक बातें फैलाने वालों को अपनी बात गलत पेश होने की चिंता है? अरे नहीं, यह अरुंधति का पब्लिसिटी हथकंडा है. अरुंधति राय ने अपनी विश्वसनीयता खो दी है. 
   
 

Kamlesh Bahukhandi (kkumar_b2002@yahoo.com) Raipur CG

 
 Being a journalist myself, I believe that before publishing or broadcasting any news, it becomes the duty of news papers and news channels to verify the facts. Most of the cases facts are sidelined and the reason behind is to be called the first one to cover the news. How rubbish it could be that news papers hiring reporters don't even sometimes know what is what. Even I too have been a victim of the same news paper in Chhattisgarh.

Few months back this news paper published a news saying that I was a phony journalist just because some one lodged a complaint against me at Civil line Police Station of Raipur city saying that I was fooling around people of Chhattisgarh as I hail from Uttrakhand.The people who complained against me were working for me for months together and all of a sudden they realized that I was not from Chhattisgarh and not even a journalist. And this news paper on the basis of false complained lodged against me, published a news saying I was a phony journalist on a statement of a police constable. Did the newspaper ever tried to find out the facts, what was what. I have worked for a prestigious English Daily of central India for months together and was bureau chief of a news channel. What I believe that before publishing news it becomes moral duty of editor of the news papers to find out facts, specially when it comes to labellings allegation against some one.

Arunndhiti Roy is a famous writer and have medium to put forward her version but what about the people who are poor, who are not having influence?
 
   
 

PRAVIN PATEL (tribalwelfare@gmail.com) BILASPUR

 
 I see this as a part of the ongoing efforts of the corporates who at any cost wants to possess the land. Salwa Judum fails, operation Green Hunt starts resulting in more violence from both sides. The twisted news by none other than the national news agency i.e. PTI appears to be a part of the game to defame all those who dare to speak the truth and expose the misdeeds of the governments.

We should not be surprised, if more mischief is played in future to crush the voice of the people in the largest democracy of the world.
 
   
 

Ananda Mishra (anandamishra.cg@gmail.com) Bilaspur

 
 यह मीडिया के लिये विचार का विषय है कि आखिर किन परिस्थितियों में इस तरह की मनमानी खबरें मीडिया में और वो भी पहले पन्ने पर जगह पा जाती हैं. आश्चर्यजनक ये है कि कोई भी सच्चाई जानने की कोशिश नहीं करता और फतवा जारी करने शुरु कर देता है. पीटीआई ने जो कुछ किया, वह शर्मनाक है. ले-दे के दो-चार संवाद एजेंसियां थीं, अब उनकी भी विश्वसनीयता पूरी तरह से संदिग्ध हो गयी है. 
   
 

bhagat singh raipur c.g.

 
 छत्तीसगढ़ के मीडिया का एक भयानक सच ये भी है कि रविवार.कॉम के अलावा किसी अख़बार ने इस कार्यक्रम के आयोजको के खंडन का समाचार नहीं छापा, खास कर उन पेपर ने भी नहीं जो अक्सर रविवार.कॉम से आर्टिकल लेते ही रहते हैं.

मैं छत्तीसगढ़ की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि सबसे ज्यादा इस भाषण का प्रभाव यहीं पड़ता हैं. कुछ लोगो को पूर्णकालिक काम मिल गया, एक संगठन ने तो पहले ही उनके लिखे साहित्य का बहिष्कार कर होली जलाने तक का आव्हान कर दिया था.

हमारे यहाँ ऐसा ही माहौल बना दिया गया है कि कोई सामाजिक सरोकार की बात करने से डरता हैं, यह बहुत संकट की बात हैं. कोई गोली मारने की बात करता है, कोई बन्दूक उठाने की चुनौती देता हैं, कोई जनसुरक्षा अधिनियम में बंद करना चाहता है तो कोई उनके साहित्य को जलाने की बात कर रहा हैं. आखिर हम किस तरफ बढ़ रहे हैं? पीटीआई ने पहली बार ऐसा नहीं किया हैं.
 
   
 

Himanshu (patrakarhimanshu@gmail.com) , Noida

 
 मीडिया दूसरे तमाम माध्यमों की तरह बिकाउ है. पूंजी का जिस तरह फैलाव हुआ है, उसमें मीडिया अपनी भूमिका भूल गया है. यह वही मीडिया है, जो पैसे लेकर जनतंत्र गढ़ने की बात करता है, डेमोक्रेसी को मजबूत करने के झूठे दावे करता है. 
   
 

Manish kumar thorat , Nagpur

 
 यह तो मीडिया का सामान्य चरित्र है. आपके पास मंच है, इसलिये आप पीटीआई के बारे में अपना पक्ष रख पायीं वरना तो बलात्कार और हत्या तक में लोग नाम छाप देते हैं और खंडन करने के लिये कहा जाये तो चुप्पी साध जाते हैं.
पहला पन्ना
 

 
 मुद्दा : बात पते की 

खबरों का ग्रीनहंट
मुंबई में कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स के कार्यक्रम में अपने व्याख्यान की पीटीआई द्वारा तोड़-मरोड़ कर लगभग झूठी खबर जारी करने को लेकर लेखिका अरुंधति राय का सवाल है कि क्या यह ऑपरेशन ग्रीनहंट का शहरी अवतार है, जिसमें भारत की प्रमुख समाचार एजेंसी उन लोगों के खिलाफ मामले बनाने में सरकार की मदद करती है, जिनके खिलाफ कोई सबूत नहीं होते.
अरुंधति राय का आलेख
 
 मिसाल बेमिसाल : आंध्र-प्रदेश 

एक नरक का सफाया
धर्म और सामाजिक परंपरा के नाम पर औरतों के कितने नरक हो सकते हैं, इसे अगर जानना हो तो आप आंध्र प्रदेश के गुंटूर की कुछपुरदर गांव की सरपंच रत्न कुमारी से बात कर सकते हैं. रत्न कुमारी समाज सेवा के लिये दूसरे कई काम करती हैं, लेकिन दलित समुदाय से जुड़ी हुई रत्न कुमारी इस नरक के सफाये के लिये जी जान से जुटी हुई हैं. इस नरक का नाम है- कोलकुलम्मा.
गुंटूर से लौटकर आशीष कुमार अंशु की रिपोर्ट
     
 मुद्दा : जैव संवर्धन 

अब कोई नहीं मरेगा
अमरीकी वैज्ञानिकों ने विश्व का पहला सिंथेटिक सेल अर्थात जीवन तैयार कर लिया है. यद्यपि वह एक नई प्रजाति या चलता-फिरता जीव बनाने से कोसों दूर हैं, फिर भी सत्य यह है कि कृत्रिम जेनेटिक कोड जिसे डीएनए के नाम से जाना जाता है, बना लिया गया है, जो किसी भी प्रकार के जीवन का मूलाधार है. दूसरे शब्दों में, ईश्वर के सामने अब प्रतिद्वंद्वी खड़ा हो गया है.
देविंदर शर्मा का विश्लेषण
 
 मुद्दा : उ.प्र. 

नहर का पानी खा गया खेती
उत्तर प्रदेश के 16 जिलों से होकर गुजरने वाली शारदा सहायक नहर का उद्देश्य 150 प्रखंडों में 16.77 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई करना था. लेकिन दस साल पहले पूरी हुई 260 किमी लंबी इस नहर के हिस्से उपलब्धियों से अधिक नाकामियां ही दर्ज हैं. किसान इस नहर के कारण परेशान हैं. योजना आयोग के अनुसार नहर के कारण खेती से आय में महज 0.68 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
रायबरेली से लौट कर रेयाज उल हक की रिपोर्ट
     
 बहस : बात पते की 

ऐसे गांधीवाद से तौबा
माओवादियों की हिंसा ने देश को झकझोर कर रख दिया है. आज की तारीख में इस तरह की हिंसा के बाद यह सवाल उठ रहे हैं कि क्या हमारे युग में गाँधीजी के अहिंसा के सिद्धांत की तनिक भी प्रासंगिकता बची है. डॉ. असगर अली इंजीनियर का विश्लेषण
 
 मुद्दा : ओडीशा 

लापता तालाब उर्फ जिला नुआपाड़ा
अगर आपसे कहा जाये कि किसी गांव के तालाब गायब हो गये तो शायद आप यकीन न करें. लेकिन ओडिशा के नुआपाड़ा जिले के बिरीघाट पंचायत के झारसरम में ऐसा ही हुआ है. खरियार, ओडिशा से पुरुषोत्तम सिंह ठाकुर की रिपोर्ट

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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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